Saturday 24 March 2012

'शहादत' भी शर्मसार इनसे !!!

'शहादत' भी शर्मसार इनसे !!!

" जरा याद करो कुर्बानी " 

मेरी शहादत को क्या कोई पहचान रहा !
भारत माँ का एक वीर सपूत था मै क्या यह कोई जान रहा !
भारतीय होने का कर्त्यव निभाया था मैंने !
अपने रक्त की आहुती देकर,दुश्मनों को मार भगाया था मैंने !
मेरे लिए वह लड़ाई सिर्फ "कारगिल" और "टाइगर हिल्स" नहीं थी !
मेरे लिए तो भारत माँ की प्रतिष्टा का सवाल था !
उस माँ की प्रतिष्टा के लिए ही इस बेटे ने दिया बलिदान थI !

पर आज विडंम्बना यह है कि, कोई मेरे लघु को नहीं पहचान रहा.
                                             कोई मेरे लघु को नहीं पहचान रहा.. ...


यह अल्फाज़ उस छिपी हकीकत की कहानी है जिसे आज भी नज़रअंदाज किया जा रहा है कल (२३ मार्च)शहीद दिवस था जब पूरा भारत उन वीरों (भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु) को याद करता है जिन्होंने "मुल्क की आज़ादी ही मेरी दुल्हन है" कह हँसते हुए फ़ांसी को गले से लगा लिया..पर शहीद दिवस मनानेवाला यह देश शहीदों के याद में ही (२६ जुलाई) को विजय दिवस भी मनाता है किन्तु इन दोनों के बीच का अंतर बड़ा ही साफ़ है एक में आज़ादी के ख़ातिर किया गया संघर्ष दिखता है तो दूसरे में स्वतंत्रता को शान से बनाये रखने तथा उससे समझौता न करने का जज़्बा दिखता है...तक़रीबन तेरह वर्ष हो गए कारगिल के उन वीरों की शहादत को जिन्होंने अपने हौसले,साहस,बहादुरी और आत्मविश्वास का परिचय देकर,दुश्मनों को उन कठिन हालातों में मार भगाया था,जिसे शब्दों से बयां नहीं किया जा सकता,वह मंज़र भी इतिहास के पन्नो में इस कदर शामिल हो गया की जिसके किस्से सुनकर आज भी हम खुद को गर्वान्वित महसूस करते हैं,वही पड़ोसी आज भी इसे लेकर शर्मसार हो जाता है!

किन्तु इन सैनिकों को शहादत के नाम पर क्या मिलता है..सरकारों से सम्मान या अपमान???

शायद प्रश्न जितना सटीक था उत्तर उतना सटीक न हो किन्तु इस प्रश्न का उठना ही अपने आप में एक संजीदा मसला है कारगिल युद्ध के दौरान 'ताबूत का कलंक' और उसके बाद शहीद 'अनुज नय्यर' के परिवार के साथ हुए अभद्र व्यव्हार ने तो तत्कालीन सरकार के निष्ठां पर ही सवाल खड़े कर दिए किन्तु सैनिकों के परिजनों का सर-दर्द सरकार बदलने के साथ ही समाप्त हो जाये ऐसा नहीं था..और इस बात को सिद्ध की धर्मनिरपेक्षता का आदर्श पाठ पढ़ानेवाली वह सरकार जो मुद्रा के लोभ में परिपेक्षता में पड़ गई और नेताओं और नौकरशाहों की मिली भगत से एक "आदर्श घोटाले" को जन्म दिया....कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिको के विधावाओं के लिए 'आदर्श योजना' के तहत उन्हें बिल्डिंगों में फ़्लैट आवंटित किये जाने थे मगर पर्दे के पीछे की सच्चाई अलग ही थी महाराष्ट्र के क़द्दावर नेताओं से लेकर अफसरशाहों तक सबने उस पर कब्ज़ा किया किन्तु समझना जरा भी मुश्किल न था की इन्होने ने युद्ध के दौरान क्या किया?? क्यूंकि आदर्श बिल्डिंग की फाईलों को इनकी टेबल से होकर ही गुजरना था सो इस मेहनताने में कुछ फ़्लैटस को अपने सगे संबंधियों के नाम पर कर दी इस घोटाले के चलते ही  उस समय के वर्तमान मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था.....


बहुत अज़ीब लगता सरकारों की ऐसी मानसिकता देखकर,जहाँ सैनिक देश प्रेम के आग में खुद को अपने माटी के ख़ातिर समर्पित कर देता है, वही दूसरी ओर बोफोर्स,सुखोई, ताबूत और आदर्श जैसे कांड,यह बताने के लिए काफी है, की हमारे सरकारें सैनिको और शहीदों के लिए कितनी सहज है! क्या कभी ऐसा भी दिन आएगा जब शहीदों को सही सम्मान और सनिकों को बिना गड़बड़ी प्रयाप्त रक्षायुक्त साधन उपलब्ध होंगे?????

बचपन में इतिहास के पन्नो में पढ़ी यह पंक्ति को बार-बार दोहरा सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि, क्या आज भी हकीकत से इसका सरोकार है या नहीं ???

शहीदों के चिताओं पर लगेंगें
हर बरस मेले
वतन पे मिटने वालों का
बाकी यही निशा होगा..


सत्या "नादाँ"

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