Monday 17 September 2012

"इंतज़ार"


"इंतज़ार"

शाम से रात हो गई
'मय' से मेरी मुलाक़ात हो गई
जाम पर जाम छलकने लगे
मेरे नैना तेरे चाहत को
तरसने लगे
किन्तु मेरी किस्मत
ही एक पहेली थी
कि ना 'शराब' चढ़ी
ना 'शबनम' मिली
रात की रंगत भी बेरंग होने लगी
नीद आँखों से खोने लगी
नीद आँखों से खोने लगी...

तेरे इंतज़ार की तड़प में
आंसुओं ने बदन को तार-तार कर दिया
बसंत की कश्ती में
सादगी का समन्दर भर दिया
और मै यह नहीं कहता
कि तेरे आने की हसरत में
बैठा रहा रात भर
मै तो बस सोचता हूँ
कि इस 'नादान' दिल ने
क्यूँ दिल लगी कर ली
क्यूँ दिल लगी कर ली !!!

सत्या 'नादान'

Saturday 8 September 2012

"कोयले की कालिख़"


"कोयले की कालिख़"

वाह रे 'कालिख़'
तेरा 'रंग' भी कितना बेमिसाल
कि तुझसे लग
'कोयला' भी 'काला' हो गया
ना मन - 'मोहन' बोले
ना 'हाथ' दिखा
'कमल' खिल-खिलाकर हंसा
'साइकल' ने भी की सेंध मारी
'लेफ्ट-राईट' सब 'सेंटर' पर भारी
'कैग-बम' से
संसद भी हारी
देखते ही देखते
कुछ एैसा हुआ 'विस्फ़ोट'
ना 'संसद' चली ना 'सांसद' चले
जनता के 'पैसे' को लगी 'चोट'
'कालिख़' के 'कलंक' में
सब कुछ खो गया
और बिन जले ही 'कोयला'
'मुल्क' में आग का 'ज्वाला' हो गया !!!
'मुल्क' में आग का 'ज्वाला' हो गया !!!

सत्या "नादान"

Friday 7 September 2012

'तुझे ही चाहा था मैंने' !!!


'तुझे ही चाहा था मैंने'

तेरी आँखों से दूर
बादल से घने अँधेरे में
मन की आशाओं से घिरा
बेबस बंधा बंदिशों में
मिलन की बेताबी को तरसूँ ...

तेरे स्नेह के संगम में
प्रियशी भीगा था मै कभी
पर वो मधुर सफ़र की घड़ी
ही थी ऐैसी कि आज भी
खुद को गिला समझूँ
खुद को गिला समझूँ......


तन तड़प से
मन मायूसी में खोया
तेरी प्रतिमा को
सिने से लगा रोज़ हूँ रोया
अपनी बातें तुझसे कहने को
बहुत है सोचा
फिर समय की सीमा ने
जुबां की खामोशियों को सींचा...

मै कहकर भी कह ना पाया
कि तुझसे प्यार है कितना
और तू सुनकर भी सुन ना पायी
कि तुझसे क्यूँ यह 'नादान'
बातें करता था इतना
बातें करता था इतना !!!

सत्या "नादान"

Wednesday 5 September 2012

"गुरु" का "आत्मा" में घर

"गुरु" का "आत्मा" में घर 

किताब समीप होकर भी
शब्द अर्थहीन थे
दिशा का पता नहीं
दशा नादानी से रंगीन थे

इतिहास पूरा खाली का खाली
भूगोल ब्रह्माण्ड से अलग
गणित का ज्ञान नहीं
जो था दिमाग शून्य से परिपक्व

तभी मिले गुरु
किया ज्ञान का अध्याय शुरू
मिली शिक्षा की सीख
मिटी इन्द्रियों की भूख
दिखी सफलता की डगर
खुशियों का नगर

ज्ञान का न कोई द्वार है
वह आकाश से है बड़ा
पाताल तक है धरा
जिसकी सीमा है इच्छा
जिसका प्रकाश सूर्य से प्रखर
तब ज्ञात हुआ
इस नादान मन को
कि क्यूँ ज़रूरी है
आत्मा में एक गुरु का घर
आत्मा में एक गुरु का घर !!!


सत्या "नादान"