Monday 5 March 2012

"कौन है अपना यहाँ"

"कौन है अपना यहाँ"

खुदगर्ज़ इस दुनिया में
अपना ही बेगाना है,
किसी के आँख से बहते है आंसू
किसी के आँख में ख़ुशी का तराना है,
मुद्रा के लोभ में
इन्सान कहीं खो गया,
जीवन की आपा-धापी में
सुख-चैन भी सो गया,
जो खून का रंग-पानी सा हो गया....

रंगीनियत बेरंग बनी पड़ी
किसी कोने में,
इंसानियत स्वयं धूमिल हुई है
इंसानों के मेले में,
जीवा भीगी-दिल भीगा
भीग गई निदियाँ भी,
'मदिरा के गोले' में
मोम-पत्थर से हो गए 
बिलक-बिलक के रोने में..


कब तक "सत्येन्द्र" लगा रहेगा तू यूँ ही
मायारूपी सपने को सजोने में
जहाँ कोई किसीका नहीं होता इस 'अँधेरे' में

जहाँ कोई किसीका नहीं होता इस 'अँधेरे' में...




सत्येन्द्र "सत्या"


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