Thursday 12 June 2014

"आफ़त में आशियाना"

 "आफ़त में आशियाना"

क्यों दू तुम्हे मैं अपना आशियाना
गुना है... चुना है
असर अस्ल तक बुना है
मेरी उम्मीदों का उमंग है ये
यही मेरे सपनों का सच समां है
रूह... रूह में बसी आदत इसकी
बचपन इन दीवारों संग पला है
कभी हंसी... कभी ख़ुशी
ज़िन्दगी ने ग़म भी बांटे इसके मयार में
मौसम ताउम्र गुज़रता गया मुसाफ़िर बन के
और आज भी...
दिल के सुकून का सफ़र
मेरी इमारत मेरा आईना है
निगाह निशाचर सी डाल डराते तुम
मेरी पनाह... मेरा जहाँ हिलाते तुम
कसूर किसका... कशिश में कौन
ज़माने को ज़ुर्म दे
पाठ क़ानून का पढ़ाते तुम
कहाँ ग़ुम थे जब बन रही थी ये
क्यों चुप थे जब चढ़ रही थी ये
खोया... खोया महकमा
तब क्यों सोया पड़ा था
और अब नींद से निकल चहक रहा
जब बीत गया अरसा
ख़ता तुमसे... और ख़त्म मैं
ये कैसी सज़ा है
ये कैसी सज़ा है......

सत्या "नादाँ"

Wednesday 4 June 2014

"हवस" में "हिंदुस्तान"



फिर एक तमाशा मेरी मौत पर लगा है
हवस के हाथ ताक़त
क़ानून जुर्म का नशा है
घर से निकलते ही
माँ कहती... बिटिया ज़रा संभल के जाना
और फिर दबे पावं
पीछे-पीछे... आ जाती सड़क तक
ना चुप रहती... ना ठहरती
बस बेचैनियों संग बहती
मेरे सफ़र को सोच
उसकी सिकन...
बेहया.. बेशर्म.. ये घूरती आँखें बताती
नज़र का नशा थमता नहीं
भूख़ जिस्म की ज़हन में समाती
पहर क्या... क़हर था वो दरिंदगी का
कंगन टूटे... आंसू फूटे...
मैं चीख़ती रही...
दहशत से सोए नगर में
पर कोई ना आया.. पर कोई ना आया..
आज घर सुना सहमा हुआ है
पिता बेबसी में भटके पड़े..
माँ... मातम में डूबी जा रही
मंज़र देख... मुन्ना रोता
कि दीदी बोलती नहीं.. भीड़ आँगन में ये कैसा पसरा पड़ा है
ख़ुशी ख़ौफ़ बन गई ज़र्रे ज़र्रे की
हया हवन में जली जा रही
और मुल्क़ मुद्दो में मरा हुआ है....
सिवा शोर मैं कुछ भी तो नहीं
कल भी दबी थी.. आज भी दबी हूँ
ना जाने ये सिलसिला कब तक चलेगा ???

सत्या "नादाँ"