Monday 25 June 2012

'चाँद' इस रात को क्या हो गया है???

इस रात को क्या हो गया है
आँखों में न नीद है
न दिल को सकूँ है 
गुमनामी के अंधेरों में पड़
शहर भी अपनी रंगत खो रहा है
अब तू ही बता दे 'चाँद'
कि इस रात को क्या हो गया है....


मंजिल की तलाश में
गुमराह बना राही
माया में मग्न होकर
जो अपनों से दूर हो गया है

अब तो मन मेरा भी
विरानी की वेदना में डूब
बहुत रो रहा है..बहुत रो रहा है..
अब तू ही बता दे ए 'चाँद'
इस रात को क्या हो गया है..
इस रात को क्या हो गया है..

सत्येंद्र "सत्या"


Friday 22 June 2012

सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी...

"वियोग की बेबसी"

सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी
न जाने किस के इंतज़ार में
दिल में तड़प चेहरे पर शिकन लिए
मन की बैचनियों से
किसी को ढुंढती
सावन के इस फुव्वार में
सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी
न जाने किस के इंतज़ार में....

शायद कोई तो था
जिसे चाहती थी वो 
जिसे मानती थी वो
जिसके आने की चाह में
पलकें बिछाए
जिए जा रही थी
वियोग की आग में
पर कहकर भी ना
आया प्रियवर भला
उससे मिलने की आस में
उससे मिलने की आस में.....

बरसों से सपने सजोये
प्रियवर की याद में
खोई-खोई सी रहती थी
किसी से कुछ न कहती थी
पर उस शाम आई चिठ्ठी ने
उसे रुलाकर रख दिया
क्षण भर में सब कुछ
क्षीण-भिन्गुर सा कर दिया
मानो ख़ुशी कुछ ऐसी छिनी उससे
कि लब्ज़ खामोश हो गए
आँखे नम रह गई ......

सत्येंद्र "सत्या" 

"मन के भाव जब अर्थ बन जाए"

"मुद्रा" तुम बिमार क्या हुई मुल्क का "विकास" बदहाल हो गया...


अब तो 'मेघा' के दामन से निकल आ 'सावन' वरना 
इस मासूम "शहर" को तपीश की नज़र लग जाएगी...

जिसे पाने की चाह में मै निकला था घर से
वही आज मेरी गुमनामी का सबब बनी...


तेरे मुल्क का मंज़र कितना बदल गया "गाँधी"
 की चूहे खाने में शेर हुए 
और इंसान अब भी "भूख" से बिलकता है...


"उर्दू" में असर तो है जावेद कैफ़ी ग़ालिब जो अपने अल्फाजों से...
दर्द भरी सुराही से भी मोहब्बत का सैलाब बहा दे...


मुझे 'रोशनी' की दरकार थी पर नादान 
वक़्त ने रिश्ता 'अँधेरे' से जोड़ दिया........


उम्मीदों की दुनियां में मैंने भी दस्तक़ दे दी 'साहिल' 
क्या पता तेरी 'लहरें' मुझे भी मंज़िल का किनारा दिखा दें...


मै हवाओं में उड़ाता प्यासा परिंदा हूँ...वो नादान
मुझे पानी पीता देख ज़मीं का बसिंदा समझ बैठे.....


तेरे आँखों में "आंसू" न होते अगर बेरहम जमाने के डर से
तो मै मजबूर न होता इस "अंगूर के रस" को ओठों से लगाने को...

सत्येंद्र "सत्या

Thursday 21 June 2012

साज़िश की आग ???

साज़िश की आग ???

कैसी रची 'साज़िश'
कि उठ रहा है धुआँ
जल रही 'सबूतों' की दास्ताँ
अगर मैं मान भी लूं इसे एक 'हादसा'
अगर मैं मान भी लूं इसे एक 'हादसा' 
तो 'क्यूँ' हुआ ये हादसा
शहर के उस 'मकान' में
शहर के उस 'मकान' में ???


सत्येन्द्र "सत्या"



राजनीति......

वाह रे राजनीति!!!
तेरा मिजाज़ बड़ा निराला है
न कोई दोस्त न कोई दुश्मन
सब अवसरवाद का ड्रामा है
कल के कठोर आज मुलायम
दादा ख़ातिर दीदी छोड़ी
दिखा दिया कुश्ती का खेल
विवादों की रेला रेली में
ममता को बोला "एकला चलो"
और स्वयं को कर दिया सेल....

वाह रे राजनीति!!!
तेरा मिजाज़ बड़ा निराला है

सत्येन्द्र "सत्या"

Wednesday 20 June 2012

"ख़ामोशी का दर्द"

यूँ चुप न रहो...


मेरे कलम की स्याही ख़त्म हो गई 
तुम्हे शब्दों में बयां करते करते
तुम हो की अब भी खामोश बैठी हो
मुझसे बेपनाह प्यार करते करते...

घड़ियाँ गिन गिन
कलियाँ बिन बिन
फ़ूलों की सौगात लाती हो
पर जब मै पूछता हूँ
कि ये सुंगंधित पुष्प किसके लिए
तो न जाने क्यूँ शर्माती हो...

आँखों की ख़ुशी
मन की उमंग को
अपने भीतर छिपा
क्यूँ ह्रदय घात कर जाती हो
अरे कुछ तो कहो यूँ चुप न रहो
अरे कुछ तो कहो यूँ चुप न रहो 

तुम्हारा कहना मेरा सुनना
इस चंचल मन को बहुत भाता है
पर अब तुम
बसंत के गीत भी नहीं गाती
जिन्हें सुनकर
कभी अपनी पीड़ा भूलता था..
कभी अपनी पीड़ा भूलता था........


सत्येंद्र "सत्या"

Saturday 9 June 2012

"मेरी गली से गुज़रने की गुस्ताखी न करना"

"मेरी गली से गुज़रने की गुस्ताखी न करना"

तुम हर रोज़ देख मुस्कुराया न करो
नादान दिल फिसल जाएगा
नैनों से नगमे बरसाया न करो
शांत मन चंचलता से भर जाएगा
'माना की तुम्हारी सुन्दरता में जादू है'
'माना की तुम्हारी सुन्दरता में जादू है' 
पर खूबसूरती का रस यूँ ही बहाया न करो
वरना सारा शहर तुम्हे पाने को मचल जायेगा.....

और मै तो मुसाफ़िर हूँ
इस अजनबी शहर में
कभी स्वयं पर वश ना रहा
तो ज़ुल्म हो जाएगा
तुम यूँ रंग दिखाया न करो
वरना शरीफों से भी गुनाह हो जायेगा....

तुम्हारी चाहत में पड़
न जाने चले गए कितने
बस गुजारिश है "सत्या" की तुमसे
कि रास्ते बहुत मिल जायेंगे
तुम्हे जानेवाले
बस मेरी गली से होकर गुज़रने  की
गुस्ताखी न करना

बस मेरी गली से होकर गुज़रने की
गुस्ताखी न करना..........


सत्येंद्र "सत्या"

Sunday 3 June 2012

"प्यार पर परम्परा की पाबंदी"

"परम्परा के तले बुझ गया प्यार"

तेरी यादों के साये से
मिलकर पता चला कि
ज़िन्दगी की हक़ीकत क्या है
यूँ ही अपनों में अजनबी
बना फिरता था मै
इसलिए सोच भी ना पाया कि
आदमी की हक़ीकत क्या है
हर पल हर घड़ी तुझसे मिलने को
तरसते मेरे नैनों के आसूं
अब तू ही बता कैसे कह दूं
इन्हें कि हमारे
रिश्ते की असलियत क्या है

पग पग चलता गया पथ पर
अपनों से लड़ता गया हर पल
फिर भी तू गैरों की तरह चली गयी
तुझे पाने की ख़ुशी नहीं थी उतनी
जितना आज खोने का ग़म सता रहा है

क्या यही सच्चाई है इस जहाँ की
जहाँ वसूल प्यारे हैं प्रेम प्यारा नहीं
जहाँ क्रूरता का शासन है
पर मानवता का आसन नहीं
जहाँ अंधविश्वास प्यारा है
पर विश्वास की डोर प्यारी नहीं
जहाँ अंहिसा का तो जाप है
पर लोग हिंसा के पुजारी हैं

और तुम छोड़ चली इन झूठे
आडम्बरों की ख़ातिर
जहाँ इंसानों की इंसानियत ही
मान्यताओं की मारी है
अरे जिन्होंने प्रेम को परम्परा
की दीवारों में जकड़ा है
अपनी बनावटी शान के अधीन
हमारे प्यार को कुचला है
तू उनसे डर गई
तू उनसे डर गई ...........

सत्येन्द्र "सत्या"