Tuesday 27 March 2012

"तुझ बिन दिल उदास मेरा "

"तुझ बिन दिल उदास मेरा "

कब तक तेरी तस्वीर से दिल बहलाता रहूँगा 
कब तक तुझे आवाज़ लगता रहूँगा 
कब तक अतीत के अंधियारे मुझे डराते रहेंगे 
कब तक इन ग़मो मै मुस्कुराता रहूँगा 
कब तक तेरी याद यूँ ही सताती रहेगी 
कब तक तेरी जुदाई मुझे रुलाती रहेगी 
कब तक साहिल की लहरें बुलाती रहेंगी 
कब तक तेरी बातें दिल की बेचैनियाँ बढ़ाती रहेंगी 
कब तक तू सिर्फ सपनो में आकर तड़पाती रहेगी
और कब तक मै यूँ ही लिखता रहूँगा
कब तक तू यूँ ही ही पड़ती रहेगी 

कबतक ....कबतक ..... कबतक .......??????




                                                                    
सत्येन्द्र "सत्या" 

Saturday 24 March 2012

'शहादत' भी शर्मसार इनसे !!!

'शहादत' भी शर्मसार इनसे !!!

" जरा याद करो कुर्बानी " 

मेरी शहादत को क्या कोई पहचान रहा !
भारत माँ का एक वीर सपूत था मै क्या यह कोई जान रहा !
भारतीय होने का कर्त्यव निभाया था मैंने !
अपने रक्त की आहुती देकर,दुश्मनों को मार भगाया था मैंने !
मेरे लिए वह लड़ाई सिर्फ "कारगिल" और "टाइगर हिल्स" नहीं थी !
मेरे लिए तो भारत माँ की प्रतिष्टा का सवाल था !
उस माँ की प्रतिष्टा के लिए ही इस बेटे ने दिया बलिदान थI !

पर आज विडंम्बना यह है कि, कोई मेरे लघु को नहीं पहचान रहा.
                                             कोई मेरे लघु को नहीं पहचान रहा.. ...


यह अल्फाज़ उस छिपी हकीकत की कहानी है जिसे आज भी नज़रअंदाज किया जा रहा है कल (२३ मार्च)शहीद दिवस था जब पूरा भारत उन वीरों (भगत सिंह,सुखदेव,राजगुरु) को याद करता है जिन्होंने "मुल्क की आज़ादी ही मेरी दुल्हन है" कह हँसते हुए फ़ांसी को गले से लगा लिया..पर शहीद दिवस मनानेवाला यह देश शहीदों के याद में ही (२६ जुलाई) को विजय दिवस भी मनाता है किन्तु इन दोनों के बीच का अंतर बड़ा ही साफ़ है एक में आज़ादी के ख़ातिर किया गया संघर्ष दिखता है तो दूसरे में स्वतंत्रता को शान से बनाये रखने तथा उससे समझौता न करने का जज़्बा दिखता है...तक़रीबन तेरह वर्ष हो गए कारगिल के उन वीरों की शहादत को जिन्होंने अपने हौसले,साहस,बहादुरी और आत्मविश्वास का परिचय देकर,दुश्मनों को उन कठिन हालातों में मार भगाया था,जिसे शब्दों से बयां नहीं किया जा सकता,वह मंज़र भी इतिहास के पन्नो में इस कदर शामिल हो गया की जिसके किस्से सुनकर आज भी हम खुद को गर्वान्वित महसूस करते हैं,वही पड़ोसी आज भी इसे लेकर शर्मसार हो जाता है!

किन्तु इन सैनिकों को शहादत के नाम पर क्या मिलता है..सरकारों से सम्मान या अपमान???

शायद प्रश्न जितना सटीक था उत्तर उतना सटीक न हो किन्तु इस प्रश्न का उठना ही अपने आप में एक संजीदा मसला है कारगिल युद्ध के दौरान 'ताबूत का कलंक' और उसके बाद शहीद 'अनुज नय्यर' के परिवार के साथ हुए अभद्र व्यव्हार ने तो तत्कालीन सरकार के निष्ठां पर ही सवाल खड़े कर दिए किन्तु सैनिकों के परिजनों का सर-दर्द सरकार बदलने के साथ ही समाप्त हो जाये ऐसा नहीं था..और इस बात को सिद्ध की धर्मनिरपेक्षता का आदर्श पाठ पढ़ानेवाली वह सरकार जो मुद्रा के लोभ में परिपेक्षता में पड़ गई और नेताओं और नौकरशाहों की मिली भगत से एक "आदर्श घोटाले" को जन्म दिया....कारगिल युद्ध के दौरान शहीद हुए सैनिको के विधावाओं के लिए 'आदर्श योजना' के तहत उन्हें बिल्डिंगों में फ़्लैट आवंटित किये जाने थे मगर पर्दे के पीछे की सच्चाई अलग ही थी महाराष्ट्र के क़द्दावर नेताओं से लेकर अफसरशाहों तक सबने उस पर कब्ज़ा किया किन्तु समझना जरा भी मुश्किल न था की इन्होने ने युद्ध के दौरान क्या किया?? क्यूंकि आदर्श बिल्डिंग की फाईलों को इनकी टेबल से होकर ही गुजरना था सो इस मेहनताने में कुछ फ़्लैटस को अपने सगे संबंधियों के नाम पर कर दी इस घोटाले के चलते ही  उस समय के वर्तमान मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी से हाथ धोना पड़ा था.....


बहुत अज़ीब लगता सरकारों की ऐसी मानसिकता देखकर,जहाँ सैनिक देश प्रेम के आग में खुद को अपने माटी के ख़ातिर समर्पित कर देता है, वही दूसरी ओर बोफोर्स,सुखोई, ताबूत और आदर्श जैसे कांड,यह बताने के लिए काफी है, की हमारे सरकारें सैनिको और शहीदों के लिए कितनी सहज है! क्या कभी ऐसा भी दिन आएगा जब शहीदों को सही सम्मान और सनिकों को बिना गड़बड़ी प्रयाप्त रक्षायुक्त साधन उपलब्ध होंगे?????

बचपन में इतिहास के पन्नो में पढ़ी यह पंक्ति को बार-बार दोहरा सोचने पर विवश हो जाता हूँ कि, क्या आज भी हकीकत से इसका सरोकार है या नहीं ???

शहीदों के चिताओं पर लगेंगें
हर बरस मेले
वतन पे मिटने वालों का
बाकी यही निशा होगा..


सत्या "नादाँ"

'स्वार्थहीत' नहीं 'जनहीत' में देखा "पॉर्न" !!!


एक नया समाज लाएँगे  

'धर्म' की सड़क पर 'अश्लीलता' की गाड़ी को 
नेताजी चलाये जा रहे हैं दौड़ाए जा रहे हैं
जनता बेचारी भूल गयी दिल की बिमारी 
जो 'डर्टी-डर्टी' कह चिल्लाएँ जा रही है..

अरे!भाई हम देश के नेता हैं
कानून बनाना हमारा ठेका है
तो शर्म क्यूँ करे
अश्लीलता से क्यूँ डरे
जब मुन्नी-चमेली का बज रहा बाजा है
शीला की जवानी का चारो ओर शोर शराबा है..


फ़िर "पॉर्न" से कैसी परहेज!!
हम इसे भी सबको दिखायेंगे
इस पर नया विधेयक लायेंगे
फ़िर कोई रोक न टोक
न ही किसी प्रकार का होगा दोष


'सभ्यता'तो एक बीमारी है
जिसमे डूबी जनता सारी है
इस अन्धविश्वास को भगाएँगे
समलैंगीगता का पाठ पढ़ाएंगे
सबको रगींन बनाएँगे
एक नया समाज लाएँगे
एक नया समाज लाएँगे...

चुकि: हमे इस "बिल" को देश में लाना है
इसलिए 'घर' में नहीं 'सदन' में देखतें है
जल्द ही इसे अम्लीय-जमा पहनाएंगे
सभी को पॉर्न दिखाएँगे
सभी को पॉर्न दिखाएँगे....


आप सुर से सुर मिलाये जा रहे हो
विपक्ष के साथ गाए जा रहे हो
हम है की 'स्वार्थहीत' नहीं
'जनहीत' में इसे देख रहे हैं
'जनहीत' में इसे देख रहे हैं....


सत्येन्द्र "सत्या"

"मासूम फ़लक की दर्दनाक दास्ताँ"


"मासूम फ़लक की दर्दनाक दास्ताँ"

ख्वाहिशों के साथ जन्मी ज़मीं पर
माँ की उम्मीदों का सपना-सजा
उम्र की छोटी दहलीज़ में
पिता की तनहाई का ग़म मिला...

पैदाइश के वक़्त निकली चीख़
आगाज़ थी ज़मीं पर फ़लक की
जहाँ इंसान अब हमदर्द कम
खुदगर्ज़ ज्यादा हो चूका था
जिस्म के खरीद-फरोफ़
की मंडी का मंज़र
गाँव से शहर तक लगा था
मगर मै नन्ही सी ज़ान
बेफ़िक्र-नादान
समझ न पायी माँ के हालात को
जो बिक गई हमारी ख़ुशी की आश को..


माया के इस पटल पर
उदासीनता ने ऐसा कहर ढाया
की ग़में सैलाब में
बह गयी ज़िन्दंगी मेरी
इंसानों की दरिंदगी से
ज़ख्म ऐसै मिले
की ख़ुशी की दस्तक से पहले
सांस थम गयी मेरी..


हैवानियत के दाँतों ने ऐसा जकड़ा
की ज़मीन फ़लक को नीगल गई
की ज़मीन फ़लक को नीगल गई......की ज़मीन फ़लक को नीगल गई



सत्येन्द्र "सत्या"

Friday 23 March 2012

प्यार "समर्पण" का नाम है

प्यार "समर्पण" का नाम है 


जब वियोग की आग में तपस्या के, अश्रु भी सरलता के मोती बन जाए ! 
जब कलम की गई कलियों, में भी फूल खिल जाए ! 
जब दो ह्रदय दूर होकर, भी परस्पर मिलते रहें ! 
जब दूर होकर भी अम्बर, धरा को अपने प्रेम से भिगोती रहे !

तो बस इसे  ही प्यार का, संगम समझाना प्रिये ! 
तो बस इसे ही प्यार का, संगम समझाना प्रिये !





सत्येन्द्र "सत्या"

Wednesday 21 March 2012

मेरे ग़ज़ल का रूप बदल गया

मेरे ग़ज़ल का रूप बदल गया 

अब  शहर  ही  शरीफ  ना  रहा
आप है की हममे शराफत ढूंढ़ते है !


ख़ुशी  की  तलाश  में  दर-बदर  भटका
वो थी की घर में मेरा इंतज़ार कर रही थी !

उन्हें मेरे आंसुओं का मोल नहीं
आँख है की हमेशा नम रहती है !


इसकी ख़ातिर वो कुर्बान हो गए
वही आज़ाद होकर मुर्दा है !

चाहत के नशे में चूर क्या
कि 'शराब' को 'शबाब' कह दिया !


सत्येन्द्र "सत्या"



"प्यार वक़्त का मोहताज़ है "

"प्यार वक़्त का मोहताज़ है " 

तेरे प्यार के रंग में रंगा हूँ मै 
तेरे हर मुस्कान से हंसा हूँ मै 
तू शायद "रूबरू" न हो मेरी तड़प से 
तू शायद "गुफ़्तगू" न हो मेरी डगर से  
कि,दिल भी मेरा अब तेरा हो गया है  
मेरी हर रूह में नाम तेरा रह गया है..

तुझे भूल जाना मेरे बस में नहीं  
तुझे गले लगा सकू इतना वक़्त भी नहीं  
अब तू ही बता की मै क्या करू
हम दोनों की बातें किससे कहू
न तुझे 'होश' है न मुझे 'होश' है
न तेरा 'दोष' है न मेरा 'दोष' है...


प्यार की राह में दिल भी मदहोश है
जिसे न घर का पता न
शहर का रास्ता मालूम बस
चाहत की दीवानगी में जिए जा रहा है
न चाहकर भी आंसुओ को पिए जा रहा है ....





सत्येन्द्र "सत्या"





Monday 19 March 2012

"मेरी माँ"

मेरी माँ.....

मुझे जीवन के सांचे में ढाली वो
'ममता की चादर' से पाली वो
हर क्षण चिंता में डूबी मेरे लिए
हर ख़ुशी को संजोती मेरे लिए
मेरे गिरते कदमों को संभाला उसने
मेरे हर स्वप्न को संवारा उसने.....


मेरा लहू उसमे व्याप्त
'रक्त की गंगा' की धारा है
मेरी सांस की हर धड़कन
उसके 'तपस्या की माला' है
और मै जो भी हूँ आज वो
उसके 'संघर्ष की गाथा' है

स्वयं आंसू में खोई पर मेरे
आँखों को नम होने न दिया
नीद के ख़ातिर लोरियाँ सुनाई
किन्तु खुद को सोने न दिया
हृतु दर हृतु ठिठुरी,तपी,भीगी,
पर मुझे कुछ होने न दिया
कष्ट की हर व्यथा सही वो
पर मेरे चेहरे से मुस्कान
को अलग होने न दिया.....

माँ उस 'समर्पण' की कहानी है
जिसका जग में न कोई 'सानी' है
माँ वह 'ज्ञान की ज्योति' है
जिसके प्रकाश से होता उद्धार है
माँ..माँ..माँ...और माँ
माँ की व्याख्या में शब्द भी कम है
क्यूंकि माँ ही संसार का जीवन है
क्यूंकि माँ ही संसार का जीवन है.......

(किन्तु बदली परिश्थितियों में
कवि अपने ह्रदय से कुछ कह उठा)

सत्येन्द्र देख 'सत्या' अब रो रहा
कि क्यूँ कोई पुत्र अपनी माँ को
'व्यर्थ की माया' में पड़
बेबस है छोड़ रहा.........बेबस है छोड़ रहा.........




सत्येन्द्र "सत्या"

Saturday 17 March 2012

"यूँ रूठा न करो मुझे मनाना नहीं आता"

"यूँ रूठा न करो मुझे मनाना नहीं आता"

नाराज़गी ने तेरी मुस्कुराने न दिया
दिल ने मय को हाथ लगाने न दिया 
कसूर किसका पता नहीं,
कसक ऐसी थी कि,
गिला शिकवा भुलाने न दिया...

मै जानता हूँ..
मोहब्बत का दिदार मुझमे है 
मेरे मन की पुकार तुझमे है 
पर तू भी इससे ज़ुदा कहाँ 
स्वयं दिल भी तेरा,
तेरे वश में रहता नहीं
बैचनियाँ बहुत हैं इसे 
बस कुछ कहता नहीं
रूठा रहता है मनाने की फ़िराक में
न जाने क्यूँ भूल जाता है
कि कोई और भी रूठा है
उसके मनाने की आश में.......




किन्तु प्यार की आग
जो ज़ली थी दिल में उसने
गमे तूफ़ान में बहकर भी
हमे अलग होने न दिया
मुसीबत के घूंट तो पिए बहुत दोनों ने
पर प्यार का असर इतना था कि,
हमने एक दुसरे को रोने न दिया.....
हमने एक दुसरे को रोने न दिया......


सत्येन्द्र "सत्या"




Wednesday 14 March 2012

हमसे का 'भूल' हुई....जो ये 'सज़ा' हमका मिली!!!!!

हमसे का 'भूल' हुई....जो ये 'सज़ा' हमका मिली!!!

पिछले साल की तुलना में इस बार का बजट कुछ ठीक-ठाक है ऐसा मै नहीं.....बजट समीक्षक एंव पूर्व रेलवे बोर्ड के अधिकतर अध्यक्षों का कहना है पिछले आठ वर्षों से रेल किराए में बढ़ोत्तरी नहीं हुई थी किन्तु रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने इस बजट में रेल किराए में इज़ाफा कर एक अच्छा कदम उठाया वहीँ "जीरो-टक्कर" तकनीक और ठंडी पड़ी भारतीय रेल को एक अलग आयाम देने के तमाम उपाय इस बार के बजट में दिखे..किन्तु इस देश की राजनितिक विडंम्बना देखिये कि यात्री किराए में हुए वृद्धि से यात्री कम राजनेता अधिक खफ़ा हो गए उसमे भी हास्यास्पद बात तो यह रही कि 'पराये कम अपने ज्यादा' ही रेलबजट से आग बबूला थे.....

देखते ही देखते इस बजट ने राजनितिक-गलियारों में बैचानियाँ बढ़ा दी, कल तक जो उम्मीद ज़ता रहे थे कि यह बजट दिनेश त्रिवेदी का कम 'राइटर्स-बिल्डिंग' (ममता बनर्जी) का ज़्यादा होगा वे भी बजट के पश्चात राइटर्स-बिल्डिंग से निकले उस 'क्रोध के चीख' को सुन हक्का-बक्का रह गए क्यूंकि किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि,वह विरोधी सुर स्वयं ममता के होंगे..बस फ़िर क्या था मंत्री जी को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया कि अब क्या होगा दिनेश त्रिवेदी का?? क्या फ़िर बजट का रोल-बेक होगा?? कहीं इस्तीफ़े कि नौबत तो नहीं आ जाएगी??अंतत: ऐसा ही हुआ ममता ने केंद्र सरकार को रेल मंत्री के हटाने का फरमान भेज दिया ममता के इस  निर्णय ने कई सवाल भी उत्पन्न किये कि, यह दीदी का कोई राजनिति कदम तो नहीं?? क्या सही में उन्हें किराये में हुई बढ़ोत्तरी कि जानकारी नहीं थी?? दीदी अपने बेबाक अंदाज़ के लिए बहुत ही प्रचलित है चाहे वो "माँ- माटी-माणूस" के अपने नारे से वामदलों को हरा सत्ता में आने का हो 'या' रतन टाटा के नेनो प्रोजेक्ट को सिंगुर से हटाने का,या फ़िर नक्सलियों के साथ वार्ता-लाप का दीदी के बयान हमेशा ही सुर्ख़ियों बटोरते है हाल के दिनों में प्रकाश सिंह बादल और अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में जाने के बयान ने तो सरकार में सहयोगी कांग्रेस के कानों कि घंटी तक बजा दी थी....


बार-बार भ्रमित करने वाले ये बयान ममता के उस छबि की गवाही देता हैं जिसमे 'अवसरवादिता' की साफ़ झलक दिखाई पड़ती है दीदी इस यूपीए गठबंधन से पहले अटलजी के एनडीए गठबंधन का भी हिस्सा रह चुकी है और एक परिपक्व राजनीतिज्ञ होने के कारण 'समय की नज़ाकत' को भी भली-भातिं समझती है कि, कब?? क्या?? और क्यूँ?? करना है! वर्तमान में कांग्रेस भी आंकड़ों के लिहाज़ से इतनी मज़बूत नहीं है की (TMC ) ममता के बिना आसानी से सरकार चला ले बस गठबंधन की इसी कमजोरी को दीदी 'केश करने में लगी है...अथवा किसी कारण देश के राजनितिक हालात गरमाकर भविष्य में तीसरे मोर्चे की ओर अग्रसर होता है  तो उस लिहाज़ से ममता की भागीदारी बड़ी महत्तवपूर्ण हो जाएगी.....रही बात बीजेपी की तो वे अपने इस दीदी का हाथ पकड़ने के लिए सदैव ही तत्पर रहती है ऐसे में "ममता की महँगी मांग" तो लाज़मी है ना........


फ़िर भला खुद को "आम-आदमी" का नेता बतानेवाली ममता आम-आदमी के बढ़ते किराये पर कैसे खामोश रहती मंत्री महोदय का बजट ख़त्म हुआ ही था कि दीदी बोल पड़ी और बोली भी तो ऐसा की 'राजनितिक-भूचाल' आ गया शरू में तो नेताजी (रेलमंत्री) को समझ ही नहीं आया कि इतना विरोधाभाष कैसा ?? परन्तु जब आया तब-तक विदाई समारोह का कार्यक्रम तैयार हो चूका था.… 


आप लोग भी बेमतलब में ही मनमोहन जी को लेकर सोनिया गाँधी को बदनाम करते है अरे भाई ममता और माया को क्यूँ भूल जाते है..अब ज़नाब आप समझिये या मत समझिये मै तो समझ ही गया की महिला-आरक्षण बिल संसद में पास क्यूँ नहीं होता.....


सत्या "नादाँ"







Sunday 11 March 2012

कौन खिंचेगा लक्ष्मण रेखा ???


इस हत्या का दोषी कौन???

भारत को विकसित देश के रूप देखने की हसरत सभी लिए फिरते है किन्तु बदलने का "जाप" जपनेवाले लोगों को करने के नाम पर "मौनव्रत" याद आ जाता है! सरकारी दफ्तर से राशन की दुकान तक फैले व्यापक भ्रष्टाचार से परेशानी तो है किन्तु ज़ुबां नहीं खुलती और खुलती भी है तो पनवाड़ी (चोराहेबाजी करने की जगह) की दुकान पर और वहीँ उसे ताला भी लग जाता है......और जब हालत ऐसे हो तो प्रश्नों का उठाना वाज़िब है की 'विकसित -भारत' की पृष्ठभूमि की नीवं कौन रखेगा???

१) क्या ७६ वर्षीय वह वृद्ध (अन्ना) जो भ्रष्टाचार के विरुद्ध झंडा लिए सदैव खड़ा रहता है???
२) या वह IPS (नरेन्द्र सिंह) जो सिस्टम में रहकर खनन माफियाओं की नकेल कसने के कारण मारा जाता है???
३) या वह सज्जन-सक्षम लोग जिन्हें देश की संपत्ति को लुप्त करने में महारथ हासिल है???
४) या आप जो लोकतंत्र की इतनी बड़ी मिशाल है की स्वंय की व्यस्तता से ही फुर्सत नहीं मिलती???

गुरुवार को मुरैना में हुई एक घटना ने सिर्फ मध्य-प्रदेश को नहीं बल्कि पुरे मुल्क को शर्मसार करके रख दिया
जिस दिन सभी होली के रंग में सराबोर थे उसी समय मध्य-प्रदेश का एक जाबांज IPS आफिसर (नरेन्द्र सिंह) 
खनन माफियाओं के ख़िलाफ छेड़ी जंग की आहुती चढ़ गया जिसका सीधा सरोकार उन लोगो से था जो 'भ्रष्टाचार मुक्त भारत' का सपना सजोये बैठे है किन्तु विडंम्बना देखिये की यह कोई पहला वाकया नहीं है जब किसी ऑफिसर को ज़ान गवा कर इसकी कीमत चुकानी पड़ी हो,जबकि इस घटना ने अतीत में हुई उन घटनाओ की  याद दिलाती है जब बिहार के सिवान ज़िले के सत्येन्द्र दूबे को २७ नवंबर २००७ की सुबह गया में हत्या कर दी गई वह भी इसलिए की उन्होंने अपने ही महकमे यानी राष्ट्रिय राज्यमार्ग के निर्माण में चल रहे घोटाले का पर्दाफाश करने की कोशिश की..फ़िर भला शंमुघन मंजुनाथ को कौन भूला होगा कानपुर  IIM का यह छात्र लखनऊ में भारतीय तेल कम्पनी (IOC) में मार्केटिंग- मनेजर के पद पर तैनात रहते हुए तेल माफियाओं के करतूतों को उजागर क्या की, कि उसे भी अपनी मौत से इसका खामियाज़ा उठाना पड़ा और १९ नवंबर २००५ को लखीमपुर खीरी में पुलिस को उनकी लाश मिली शंमुघन मंजुनाथ कि हत्या ने आईआईएम छात्रो के साथ-साथ देश के युवाओं में रोष दिखा किन्तु यह अधिक दिनों तक नहीं चल सका....और जिन्होंने  भी भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिए कदम बढ़ाया उनके उठते कदमो को क़तर कर इस कदर अपाहिज बनाया गया कि किसी हिम्मत न हुई कि फ़िर आवाज उठाए.................




आज़ादी के पश्चात् भारत विकास कि ओर अग्रसर तो हुआ किन्तु इस उभरते भारत कि एक कड़वी सच्चाई
यह भी रही कि विकास के संग भ्रष्टाचार भी बढ़ता चला गया पिछले कई सालों का आंकड़ा देखे तो पता चलेगा कि भ्रष्टाचार का सांप कुंडली मार किस भांति बैठा है और अब तो समस्या यह है कि यह सांप और भी मोटा हो गया है एंव अपने ज़हर से न जाने कितनो पर कहर ढा रहा है,मगर अचरज कि बात तो यह है कि इस सांप को दूध पिलाने वालों का ताँता सा लगा हुआ है जिसपर किसी का डंडा नहीं चलता...........शायद यही कारण है पहले "बोफ़ोर्स घोटाला",कारगिल युद्ध के दौरान का "ताबूत घोटाला " चारा घोटाला,मधु कोड़ा जी का घोटाला,कामनवेल्थ गेम्स घोटाला ,या २ जी घोटाला...घोटाला........घोटाला...........और घोटाला................


मीठी नदी (मुंबई) और यमुना नदी (दिल्ली) कब नदी से गटर या तलाव बन गए समझ में नहीं आया अर्थात कहने का तात्पर्य यह है कि जिन्हें अपना आकर बढ़ा लोगो कि समस्याओं का निवारण करना था वह भी इनकी भेंट चढ़ गए और घोटाले गटर से तालाब,तालाब से नदी फ़िर नदी से समंदर हो गए अब तो आलम यह है कि आये दिन इनमे सुनामी आती रहती जिसमे न जाने कितने बेक़सूर बह जाते है..किन्तु जो भ्रष्टाचार के सूत्रधार है उनका कुछ नहीं होता हाँ मुकदमा शब्द इनके नाम से जुड़ा ऐसा तकिया कलाम बन जाता है कि आये दिनों निचली अदालतों से उच्च न्यायालय तक भटकता रहता है और अगर गाहे बगाहे सर्वोच्च न्यायालय पहुँच भी गया तो फ़ैसला आने में इतनी देर होती कि वह जीवन का हर  लुत्फ़ उठा परलोक सिधारने कि तैयारी में रहते हैं...बहरहाल यह साफ़ कर दूँ कि मै भारत कि न्यायिक आस्था पर नहीं बल्कि व्यवस्था कि आलोचना कर उसमे बदलाव कि गुजारिश चाहता हूँ.....


क्या इन घटनाओं से हमारी नसें नहीं खिचती?? क्या हमारी संवेदना,वास्तविकताएं,इंसान प्रेम भी राजनेताओं कि तरह अवसरवादी हो गई है?? या अब हममे इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि सही को सही और गलत को गलत कह समाज में अपनी आवाज़ को बुलंद भी कर सकें???  या शर्म हमारी आँखों से खो गई है कि हमने अपने आप को इस अनरूप ढाल रखा है कि इनसे कुछ फ़र्क ही नहीं पड़ता???

फ़िर ज़हन में सवाल आता है कि कौन खिचेगा लक्ष्मण रेखा?? 
भ्रष्टाचार कोई समस्या नहीं बल्कि वह घमंडी प्रवित्ति  है जो कि इस बात को दर्शाती है कि कोई मेरा क्या कर लेगा मै सबसे ऊपर हूँ बस यही भावना उस भ्रष्टाचार को जन्म देती है जहाँ पर इंसान खुद को कानून से ऊपर समझता है जिसपर लगाम लगाने के लिए लक्ष्मण रेखा खीचने  कि आवश्यकता है और यह तभी संभव है जब हम अपनी मानसिकता को बदलेंगे...और हम क्यूँ भूल जाये कि इसी जनता (भीड़) ने ही जेसिका को इन्साफ और अन्ना को लोकपाल के लिए मजबूत बनाया...फ़िर आज क्यूँ हम इन होती हत्याओं पर खामोश है!!!
कहीं 'राजनीतिज्ञों' की आलोचना के आड़ में हम अपनी 'सामाजिक' जिम्मेदारी तो नहीं भूल गए???









                                                                                                     

   सत्या "नादाँ"





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Thursday 8 March 2012

"महिलाओं का सम्मान देश का सम्मान"


"महिलाओं का सम्मान देश का सम्मान"

संसार कि जननी का सार हो तुम 
करुणा से छलकाती 
भरी गगरी कि बहार हो तुम 
अतुल्य तुम्हारा रूप है 
वैभवी जिसका स्वरुप है 
तुम ही बहन-तुम ही हो माता
तुम ही किसी के 
जीवन कि अर्धांगनी हो....


समाज के हर डगर कि राह है तुमसे
न जाने कितनो कि छिपी आशा
व् मुस्कान है तुमसे
 तुम्ही प्यार कि परिकाष्ठा
तुम ही सम्मान कि गाथा हो
तुम बिन सब कुछ सुना-सुना

                                                                              तुम बिन हिंद सुखा जहाँ
                                                                              तुम बिन गौरव का "गौरव" नहीं...
                                                                              तुम बिन नहीं किसी की शान
                                                                              जो तुम हो धड़कते भारत का 'प्राण'.
                                                                              जो तुम हो धड़कते भारत का 'प्राण'.....



                                                                                    सत्येन्द्र "सत्या"

Wednesday 7 March 2012

रंगों की रंगीनियत में झूम उठा हूँ मै....... (अब न बच पायेगी गोरी तू मेरे रंगों कि पिचकारी से)

रंगों की रंगीनियत में झूम उठा हूँ मै.......
  (अब न बच पायेगी गोरी तू मेरे रंगों कि पिचकारी से)


रंग गुलाबी नैन शराबी
लेकर आया तेरे द्वारे पे
अब न बच पायेगी तू गोरी
इन रंगों के फव्वारे से..


लाल- काला नीला -पीला
चेहरा मेरा हर रंगों से गिला
फिर भी होली का रंग अधुरा
जो रंगा नहीं अब तक तेरे हाथो से
मधुर प्रेम के आँखों से...




मेरी पिचकारी भी बेचैन है
तुझको पाने को
रंगों कि प्यास बुझाने को
तो छुपी क्यूँ है बाहर आ जा
होली के रंग में छा जा ..
तब देख मज़ा फिर होली का......तब देख मज़ा फिर होली का......




होली कि बहार आ गई ......

ख़ुशी कि घटा छा गई
रंगों के त्योहारों से 
घर-घर में मिठास आ गई 
मदमस्त होली के फव्वारे से..

जहाँ झूम रहे है सभी 
अपने गिले-शिकवे भुलाकर
एक दुसरे को दोस्ती का गुलाल लगाकर  
प्यार के रंग में नहाकर..

तुम भी अपना मैला जला दो 
होलिका के अंगारे में 
जियो ज़िन्दगी जीभर कर 
रंगों कि ख़ुशी के तराने में ...रंगों कि ख़ुशी के तराने में ...


सत्येन्द्र "सत्या"

Tuesday 6 March 2012

समाजवादी झंडे का नया चेहरा "अखिलेश" यू.पी. की बढ़ी उम्मीद....


समाजवादी झंडे का नया चेहरा "अखिलेश" यू.पी. की बढ़ी उम्मीद.....
                                             ( यू.पी में 'A' फेक्टर सब पर भारी)



उत्तर प्रदेश के ४०३ सीटों में से अकेले २२४ सीट हासिल कर धमाकेदार जीत दर्ज करनेवाली समाजवादी पार्टी ने उन सभी एक्जिट पोल को बेतुका साबित कर दिया जिन्होंने बिना गठबंधन के सरकार बना पाने की आशंकाओं को सिरे से ख़ारिज कर दिया था! शायद सपा को भी इतनी बड़ी जीत कि उम्मीद न थी,पर नतीजो के बाद अब जो सवाल चुनाव समीक्षकों के साथ-साथ स्वंय सपा के अन्दर भी होगा वह है, इस जादुई आंकड़े के पीछे के जादू का अर्थात इस जीत का सेहरा किसके सर बंधेगा.. 'मुलायम' या 'अखिलेश'...मुझे नहीं लगता इस जवाब के लिए  किसी 'रॉकेट सायंस' कि आवश्यकता है..

डॉ राम मनोहर लोहिया से प्रभावित हो 'समाजवादी विचारधारा' कि पृष्ठभूमि पर समाजवादी पार्टी कि नींव रखने वाले मुलायम सिंह,स्व.जनेश्वर मिश्रा,और मोहन सिंह जैसे नेताओ ने भी "साईकल कि ऐसी रफ़्तार" इससे पहले नहीं देखी..कल तक समाजवादी पार्टी के झंडो और बैनरों में मुलायम के साथ जिन नेताओं कि तस्वीरे देखने को मिलती,उनमे वह तस्वीर शायद ही दिखती थी जिसने आज पुरे यू.पी.में सपा कि तस्वीर बदल दी........मतलब साफ़ है अखिलेश जी हाँ इस जीत का सबसे बड़ा श्रेय अखिलेश को ही जाता है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता....२००७ के विधानसभा चुनाओं में मात्र ९७ सीटों तक सिमट के रह जाने वाली इस पार्टी ने विगत ५ वर्षों के भीतर ऐसा क्या कर दिया की उसकी 'पंक्चर साईकल' इस रफ़्तार से दौड़ी की कोई उसे पकड़ ही नहीं पाया.??? इसका मुख्य कारण था पार्टी में आया बदलाव..जो सपा अब तक पुराने सोच और उम्रदरार नेताओ के हाथो चल रही किसी विशेष जाती और समुदाय की पार्टी कहलाती थी....उसे जनता ने इस बार ऐसा जनसमर्थन दिया कि, विरोधियों को भी सोचने पर विवश हो जाना पड़ा...



अखिलेश कि सपा में दस्तक ने पार्टी का पूरा चेहरा ही बदल दिया..ऑस्ट्रेलिया में अपनी पढ़ाई पूरी कर स्वदेश लौटे अखिलेश ने पिता मुलायम को राजनिति में  सहयोग करने का फ़ैसला किया..और पार्टी का युवा नेतृत्त्व बन पार्टी में पूरी तरह से कार्यरत हो गए.. मुलायम को भी इससे परहेज नहीं-तशल्ली ही थी कि उन्हें उनका उत्तराधिकारी मिल गया..पिछले विधान सभा चुनाओं में मिली हार के बाद पार्टी में जो अंत:कलह देखने को मिली उससे पार्टी को काफ़ी नुकसान हुआ था जिसके चलते कई नेताओ को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया तो कई ने स्वंय ही जाना बेहतर समझा जिससे पार्टी कि बढ़ी किरकिरी हुई..इतना कुछ देखने के बाद मुलायम नहीं चाहते थे कि पार्टी कि और ज्यादा दुर्गति हो..और इस चुनाव में अपना भार कम करते हुए चुनाव कि पूरी तैयारी अखिलेश के हाथों में ही सौप दी, पिता से विरासत में मिली राजनिति को आगे बढ़ाने कि जिम्मेदारी अपने  कन्धों पर लेते हुए अखिलेश ने भी इसे बखूबी अंजाम दिया और चुनावों में सपा कि सफलता कि बुलंदी का झंडा गाड़ दिया....अखिलेश के लिए यह चुनाव आसान न था..एक तरफ उन्हें अपने धुरविरोधी बसपा कि कमियों को जनता के बीच ले जाना था और गुंडों कि पार्टी का आरोप झेल रही सपा को इस तमगे से मुक्ति दिलाना..शायद यही कारण था कि बाहुबली विधायक डी.पी को पार्टी से टिकट न देने का निर्णय कर पार्टी कि धुमील छवि को सुधरने कि कोशिश कि ....वही दूसरी ओर खुद को यू.पी का युवा चेहरा बताने वाले राहुल गाँधी के समक्ष जनता खुद को साबित करना और इन तमाम चुनौतियों पर खरा उतारते हुए अखिलेश ने अपनी शक्ति का लोहा मनवाया..


 इस बार हुए जनता द्वारा हुए जबरजस्त मतदान ने अब तक यू.पी में पनपती आ रही धर्म एंव जातीय समीकरण कि दलगत राजनिती को दरकिनार कर 'लोकतंत्र' में 'वोटतंत्र' कि आस्था को मजबूत किया..इसका ही उदाहरण था कि पिछले चुनाओं में बना 'ब्राहमण-दलित' का गठजोड़ का सुपरहिट फार्मूला 'सुपर फ्लाप' साबित हुआ..और जनता ने अखिलेश के यू.पी के प्रति नई सोच और विकास के सपनो को तवज्जो देते हुए बदहाल हो चुके उत्तर प्रदेश को सही मायने में 'उत्तम' बनाने  कि दिशा में ले जाने का कार्य सौंपा.....अब देखना है मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने से मना करनेवाले अखिलेश किस तरह से जनता के विश्वाश कि कसौटी पर खरा उतरते है.........


सत्येन्द्र "सत्या"



Monday 5 March 2012

"कौन है अपना यहाँ"

"कौन है अपना यहाँ"

खुदगर्ज़ इस दुनिया में
अपना ही बेगाना है,
किसी के आँख से बहते है आंसू
किसी के आँख में ख़ुशी का तराना है,
मुद्रा के लोभ में
इन्सान कहीं खो गया,
जीवन की आपा-धापी में
सुख-चैन भी सो गया,
जो खून का रंग-पानी सा हो गया....

रंगीनियत बेरंग बनी पड़ी
किसी कोने में,
इंसानियत स्वयं धूमिल हुई है
इंसानों के मेले में,
जीवा भीगी-दिल भीगा
भीग गई निदियाँ भी,
'मदिरा के गोले' में
मोम-पत्थर से हो गए 
बिलक-बिलक के रोने में..


कब तक "सत्येन्द्र" लगा रहेगा तू यूँ ही
मायारूपी सपने को सजोने में
जहाँ कोई किसीका नहीं होता इस 'अँधेरे' में

जहाँ कोई किसीका नहीं होता इस 'अँधेरे' में...




सत्येन्द्र "सत्या"


Sunday 4 March 2012

किसके सर सजेगा सत्ता का 'सरताज़' ???

किसके सर सजेगा सत्ता का 'सरताज़' ???


उत्तर प्रदेश में कल अंतिम चरण का मतदान ख़त्म होने के साथ ही सियासी गलियारों से लेकर न्यूज़ चैनलों और अख़बारों तक शुरू हो गया कयासों का दौर इस बार की हुई धुआंधार वोटिंग ने राजनीतिज्ञ पार्टियों के साथ-साथ चुनावी पंडितो (विशेषज्ञ ) को भी भ्रम में डाल रखा है....किसी के लिए भी यह कह पाना की इस बार सत्ता की चाभी किसके हाथ लगेगी दुविधाजनक हो जाता है किन्तु एक बात जो सबने समान्यत: कही,वह है माया की विदाई  अर्थात चुनाओं के दौरान ढकी 'हाथी की माया' का जादू इस बार देख पाना मुश्किल है......


किन्तु इन्ही अटकलों के कारण मेरे ज़हन में कुछ प्रश्न उठने लगे, मसलन.......


१> क्या पिछले चुनाओं में दिखा ब्रहामण-दलित का 'करिश्माई' समीकरण अब समाप्त हो गया?
२> क्या ५००० करोड़ के राष्ट्रिय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना (NRHM) के घोटाले का 'जिन्ह' माया पर भारी
     पड़ेगा?
३> कहीं कांग्रेस की मजबूती यू.पी.को त्रिशंकु विधान सभा की ओर तो नहीं ले जाएगी?
४> क्या अखिलेश 'सामाजवादी झंडा' का नया चेहरा बन प्रदेश में अपनी छाप छोड़ेंगे?
५> क्या उमा यू.पी.में सत्ता के लिहाज से महत्तवपूर्ण 'दलित समाज' में कमल खिला पाएंगी?
६> और इन सब के बिच मुस्लिम समाज कहाँ खड़ा है.. कहीं वह आपस में बटा तो नहीं?


४०३ विधान-सभा सीट वाला यह प्रदेश राजनितिक द्रृष्टि से अत्यंत महत्तवपूर्ण है यहाँ से ८० लोकसभा सांसद और ३१ राज्य सभा सांसद आते है जो की सीधे केंद्र की राजनिति को प्रभावित करते हैं,मतलब इस राज्य के राजनिति परिणाम २०१४ के लोकसभा चुनावों कि तस्वीर का फ़ैसला करने में निर्णायक साबित होंगे..२००७ के चुनाव नतीजो पर रौशनी डालें तो बसपा (२०६) सपा (९७) बीजेपी (५१) कांग्रेस (२२) रालोद (१०) अन्य (१६) सीटें मिली थी..आप कि जानकारी हेतु बता दूं कि उस समय भी किसी ने नहीं सोचा या अनुमान लगाया था कि बसपा पूर्ण बहुमत से सरकार बनाएगी...किन्तु इस चुनाव में जो मुख्य बात उभर के सामने आई वो थी जनता का मतदान के प्रति झुकाव जो किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के लिए बेहद जरुरी होता है..इस चुनाव में राजनितिक विरासत कि दूसरी पीढ़ी ने अब अपने बल से पार्टी को आगे ले जाने कि बहुत कोशिशे भी कि चाहे वो राहुल,अखिलेश या जयंत चौधरी ही क्यूँ न हो अब तो समय ही बताएगा इस जिम्मेदारी में कौन कितना खरा उतरा .....




इस चुनाव के नतीजे गठजोड़ कि राजनिति के हिसाब से भी बेहद दिलचस्प होंगे कि कौन किसके साथ गठबधन करेगा इस चुनाव कि खासियत भी यही थी कि,अपने-अपने राज्य में साथ-साथ चुनाव लड़ने वाले TMC और INC ,BJP और JDU ने यहाँ पर अलग-अलग चुनाव लड़ा.........


तो बस मेरे संग इंतजार कीजिये ६ तारीख का जब "EVM बाबा"(वोटिंग मशीन) का पिटारा खुलेगा और शुरू हो जाएगी वोटों कि गिनती जहाँ शह और मात के खेल में देखना वाकई बड़ा दिचस्प होगा कि बाज़ी किसके हाथ लगती है चुनावी विशलेषण वास्तविकता के कितने निकट या उनसे परे है....और यू.पी को अक्सर जातीय राजनिति के चश्मे से देखने वाले नेताओं को जनता ने क्या जबाब दिया ??? मतदान में फर्स्ट क्लास नंबर पाने वाली यह जनता अब किसको फर्स्ट क्लास से पास करती है या फ़िर पार्टियों को प्रमोशन नंबर कि आवश्यकता पड़ेगी??????????





       सत्येन्द्र 'सत्या'

प्रेम के आश को कब तक दबाएँ फ़िरते रहोगी...

प्रेम के आश को कब तक दबाएँ फ़िरते रहोगी...

बड़ी मुद्दत है मुस्कुरा कर
आसमान को छूने की,
सम्मंदर से मिले मोती को
इस गले में पिरोने की
खुद को तुम्हारी बांह में
रखकर 'वसंत' में सोने की
रुक-रुक कर ही सही
तुम्हारे 'चाहत की मदिरा' पिने की....

इसे सच समझो या एक दीवाने का सपना
पागल समझो या अपना
ये तो नज़रों की नज़दीकियाँ है
जो दोनों को पास बुलाती है
मुझे-तेरी तुझे-मेरी सूरत दिखाती है......


दिल देकर तुझे मै फ़िसल गया
इश्क में तेरे हद से गुजर गया
तुझे भी एहसास है इस खबर का
जो तुम देख-देख शर्माती हो
बिन कहे कुछ चली जाती हो
वियोग में हुई आँखों की नमी को
ख़ुशी के आंसू बताती हो....ख़ुशी के आंसू बताती हो......




सत्येन्द्र "सत्या"