Monday 19 December 2016

बेबस बस्ती

बेबस बस्ती

जर्ज़र इमारतें
गली सुखकर टूटी पड़ी
पानी की प्यास से
घर से घर की दूरी बढ़ी
कभी शोर कभी चोर की
गूँज से दहलता नगर
दहशत की दीवारों से बंधे
हम सब के घर
नज़र देखती तमाशा
आवाज़ ख़ामोशी की ग़ुलाम है
ज़िन्दगी जो हर रोज़
देखती नया सवेरा
वही हर वक़्त
ख़ुदग़र्ज़ी के नाम से बदनाम है
और कैसी बस्ती बसी है
यहाँ इंसानों की
जहाँ इंसानियत ही
मायूसी के अँधेरे में ग़ुमनाम है....

सत्या "नादाँ"

अधमरी "अनामिका"

अधमरी "अनामिका"

सर्द सुबह की उस रोज़
घर के दरवाज़े से दूर
बिजली के तारों को थामे
गली के अंधियारों में खड़ा
गिरते पानी को निहारता
कि एक ज़ोर की... चीख़
ज़र्रे.. ज़र्रे.. को झकझोरती
तेज़ी से निकलते … आती
आवाज़ का असर भी इतना
कि.. लगा किसी दहशत ने
द्वार पे... दस्तक़ दे दी
मंज़र देख उमड़ी भीड़
अभी जिस्म को सहला ही रही थी
कि... अनामिका
ख़ामोशी के आग़ोश में सो गई....
अनामिका...
ख़ुशी के संगम में सराबोर
वो हर दिन... हर पल
सपनों को समीप होता देख
शब्दों के आसमाँ सजा
आहिस्ता... आहिस्ता...
अरमानों के शहर बसाती...
अनामिका...
पहर दर पहर
तस्वीर बन आँखों में छाप छोड़ती
अदभुत नक्काशियों में ढली
शगुन की वो अंगूठियाँ
अब आंसू बन नज़रों में चुभती
कि...
अनामिका ये क्या से क्या हो गया ???

सत्या "नादाँ"