Friday 28 December 2012

"शोक में शोर-समाज में सन्नाटा"

 "शोक में शोर-समाज में सन्नाटा"

अब शर्म भी आएगी
गुस्सा भी आएगा
दर्द भी होगा
और तख्तियों का वो हुज़ूम दिखेगा
कि शहर के सड़क-गाँव के नुक्कड़
सब मानो इंसाफ को मोहताज़ हों
मगर ये इंसाफ कौन करेगा
सरकार.....क़ानून....???
सूली कौन चढ़ेगा.....???
वो दरिन्दे जिनकी हैवानियत
भी इंसानियत के लिवाज़ में है
कौन थे वो
आसमान से आये थे
या फिर थे पाताल के पत्थर
नहीं ना
वो तो तुम्हारे ही बसिंदे हैं
जिन्हें तुमने ही पाला है
शिला-चमेली-मुन्नी
सरीखे नामों को बदनाम कर
अपने शौख़ को नवाज़ा है
फ़िर क्यूँ  आज मेरी मौत पर
अजीब तमाशा है
अरे मै पहली सितमग़र तो नहीं
मुझसे पहले भी कई माँओं ने
अपनी बेटियों को
हवस के हाथों दब
दम तोड़ते देखा है 
तो क्यूँ शोक में शोर
समाज में सन्नाटा है
ये कैसा बनावटी रंग है
ये कैसा बनावटी ढंग है
कि मौत पर मेरे
बह रहे हैं घड़ीयाली आंसू 
सदमा ही सदमा है मुल्क में
पर सबक से सरोकार नहीं
आज दामनी मरी
कल दमन होंगी सारी नारियाँ
क्यूंकि तुम्हे तो इंतज़ार है
सरकारों के बदलने का
क़ानूनों को बदलने का
पर तुम कभी
खुद को बदल ना सके
पर तुम कभी 
खुद को बदल ना सके !!!

सत्या "नादान"

Wednesday 19 December 2012

"दामिनी" बनी "द्रोपती" !!!

"दामिनी" बनी "द्रोपती" !!!


ये कैसी अजीब आवाज़ें है
जो सिर्फ चीख पर चीखती हैं
कहाँ थी यें
जब मुझे नोंच रहे थे दरिंदे
शहर था सफ़र था सड़क था
सब के सब उनके ही थे बसिंदे
फिर भी मै द्रोपती बनी
और द्रोपती भी क्यूँ कहूँ मै खुद को
वह तो शतरंज के मात की शौगात थी
पर यहाँ ना तो कोई खेल था
ना ही जंग थी मेरी उनसे
तो क्यूँ आज
अबला-असहाय-अधमरी
सी पड़ी हुई हूँ इस बिस्तर पर
शर्मसार मै-खामोश मै दर्द मुझे है
तो खोया कौन
वो जो सोते हुए भी चिल्ला रहे हैं
जुर्म के शहर मे
सांत्वना के आंसू बहा रहे हैं
जो कहते है डर मुझे भी लगता है
ऐसे मंज़रों से
जानकर भी हवस के साँप को
दूध पिला रहे हैं

जानकर भी हवस के साँप को
दूध पिला रहे हैं !!!


यह किस दहशत की घड़ी है
कि मुल्क का मुक्कदर
बनाने वाले ही
बेबसी के गीत गाने लगे
क़ानून कंगनों मे जकड़ी
ज़ालिम जुर्म की
दास्ताँ सजाने लगे ?????




Monday 3 December 2012

"ग़ुमशुदा दीवारें"

"ग़ुमशुदा दीवारें"

क्या भूल गए तुम्हे वह सब
तुम जिनकी बनावट हो
अगर हाँ तो क्यूँ ?
और नहीं तो क्यूँ ?
इन दीवारों पर सन्नाटा है
ना ही अब ख़ुशी है
ना ही वो ग़म
जिसे कभी हमने संग बांटा है
कहीं ऐसा तो नहीं
कि हम सिर्फ़ ज़रूरतों के मुसफ़िर थे
सफ़र ने बेगानों से अपना बना दिया
वो हमदर्दी वो प्यार
वो गुस्सा वो ललकार
सब के सब बनावटी रंग थे
जो दूरियों के दरम्याँ बह गए
और हक़ीकत में
अतीत की यादों में खोई
वर्तमान के ख़ामोशी में रोती
भविष्य के सवालों में उलझी
तुम ही तनहा रह गई
तुम ही तनहा रह गई !!!

सत्या  "नादाँ"