'मेरे "अल्फाज़" किसी के छिपे जज़्बात हैं'
मेरी 'चिट्ठी' ने 'शहर' में 'हंगामा' मचा रखा है
अरे कोई उनसे भी तो पूछे
जिन्होंने 'मुल्क' को ही
'मदारी' का 'तमाशा' बना रखा है....

'विश्वास' मर गया 'माया' के मेले में
पर मै 'मुर्ख' न समझ पाया इसे
जो अब भी लगा पड़ा हूँ
'दोस्ती' के 'खेलों' में .....

तुम 'हक़ीकत' से
नज़र यूँ न चुराया करो
'सपनो' में प्यार
तो सभी को होता है.....

मेरी 'ख़ामोशी' का मतलब
पूछो इस 'मुल्क' से
जहाँ 'इंसान' ज़िंदा होकर भी 'गुमशुदा' हो गया है...

इसे उसका बदला 'रंग' न समझना
ये तो उसकी 'अदा' है
जिसपर 'इंसानों' का
'वश' नहीं....
सत्येन्द्र "सत्या"
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