तुम हर आये दिन छाती हो
हवा-आंधी संग लाती हो
किन्तु अब भी इंतज़ार है मुझे
तुम्हारी उन मोटी बूंदों का
जिसमे अपनी पलके भीगा संकू
बेरंग बनी जिन्दंगी
गर्मी के मौसम में
उसमे तुम्हारे पानी का
रंग मिला सकू
पर तुम ऐसा होने नहीं देती
जो दस्तक तो देती हो
बारिस के आने का
और फिर लौट जाती हो
और फिर लौट जाती हो...
अरे मेघा अब तो बरस जाओ
जो डर लगता है बदन को
उन तपाती किरणों से
गर्म धुप की जंजीरों से
क्यूँ इस तरह लुक्का-छिपी
का खेल खिलाती हो
क्यूँ इस तरह लुक्का-छिपी
का खेल खिलाती हो .....
मेघा अब तो बरस जाओ
मेघा अब तो बरस जाओ ......
सत्येन्द्र "सत्या"
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