Tuesday 13 December 2011

WHY DEATH PENALITY HAS BECOME POLITICAL ISSUE IN INDIA ???????????


संसद पर हमले की बरसी पर फ़िर जो मामला तूल पकड़ रहा है वह है अफज़ल की फाँसी का,आखिर क्यों उसकी माफ़ी याचिका पर सुनवाही में देरी हो रही है ! क्या इसे राजनितिक जामा पहनाया जा रहा है! इन सब पर चर्चा करने से पहले हमें उन पहलुओं को समझना होगा,जो इस फैसले के बिच रोड़े उत्पन्न कर रहे है...........


# क्या है rarest of the rare ?



१९८० में सर्वोच्च न्यायालय ने "बच्चन सिंह" के  मामले कि सुनवाही करते हुए फ़ैसला सुनाया था, कि देश में अब फाँसी rarest of the rare case में ही होगी! पर इसकी परिभाषा समय के साथ बदलती गई, १९८३ में capital crime, honor किल्लिंग, तो १९८९ में इसका दायरा बड़ा कर large scale narcotic traffing को भी शामिल किया गया उसके बाद आतंकी गतिविधियों के लिए भी इस सज़ा को बहाल किया गया, किन्तु इन सबके बावजूद भी rarest of the rare को प्रमाणित कर पाना मुश्किल है! क्यूंकि यह हमेशा ही perception है की जज किस नज़रिए से निर्णय लेता है! आरोपी द्वारा किये गए कृत को घिनोना मानता है कि नहीं सिर्फ तथ्यों पर ही rarest of the rare साबित नहीं होता है इनकी रूप रेखा भी आवश्यक होती है! 

# क्या है राष्ट्रपति के सवैधानिक अधिकार सज़ा ए मौत के प्रति ? 

सर्वोच न्यायालय द्वारा दी गई सज़ा पर पुन्रविचार का हक़ सिर्फ राष्ट्रपति के पास होता है  
राष्ट्रपति अगर चाहे तो अपराधी कि सज़ा ए मौत रोककर उसे उम्र कैद में तब्दील कर सकता है अथवा उसे अमान्य कर सकता है देश में पिछली फाँसी aug 2004 में हुई थी, जब धनंजय चटर्जी कि माफ़ी याचिका को खारिच करते हुए पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे अब्दुल कलाम ने फाँसी कि सज़ा को बरकरार रखा उसके बाद से आज तक देश में किसी को फाँसी कि सज़ा नहीं हुई वर्तमान समय में  राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने राजीव गाँधी के हत्यारों, देवेन्दर सिंह भुल्लर और महेंद्र नाथ दास कि, माफ़ी याचिका ख़ारिज  कर दी, पर जेल कि रस्सियाँ आज भी उनका इंतजार कर रही है, कुछ यही कमावेश अफज़ल गुरु का भी है जिनकी माफ़ी याचिका राष्ट्रपति से लेकर नौकरशाहों(गृह सचिव) तक विचार विमर्श के लिए गोल गोल घूम रही है, बस यही से शुरुवात हो जाती हैं राजनितिक कवाय्तों कि !

# क्यूँ सज़ाए फाँसी बन जाती है राजनितिक फाँस ?

          ग़ालिब ने कहा था ,  "एक ही उल्लू काफ़ी था, बर्बादें गुलिस्तां करने को,
                                 वो हाले गुलिस्तां क्या होगा,जब हर डाल पर  उल्लू बैठेगा" 

जी हाँ इस देश में राजनीती तब नहीं होती जब यह मामले कोर्ट में होते है किन्तु जैसे ही राष्ट्रपति के पास पहुचतें है वाद विवाद का केंद्र बिंदु बन जाते है ,वर्त्तमान समय में देखें तो फाँसी के कई मामले राष्ट्रपति के पास पड़े हैं जिनपर फ़ैसला आना बाकि है, फ़ैसलों में होती देरी से जहाँ परिवार सांत्वना जुटाने की कोशिश करता है, वही राज्य में अराजकता सा माहोल छाने लगता है तो ये कहना गलत नहीं की राष्ट्रपति द्वारा की गयी देरी राजनितिक आग में घी का कम करती है, जिसका उदाहरण है जम्मू- कश्मीर,पंजाब और तमिलनाडु.

# राजनितिक अवसर-वादिता और उसका प्रभाव !

देश की राजनितिक पूरी तरह से उस प्रणाली पर निर्भर है जो की FPTP electoral system के तहत चलती है जहाँ फ़ैसला majority नहीं numbers करते है इसे समझाना इसलिए आवश्यक है क्यूंकि यही प्रणाली जन्म देती राजनितिक अवसर-वादिता को शायद इसी डर से जयललिता ने तमिलनाडु विधानसभा में राजीव गाँधी के हत्यारों के बचाव में resolution पारित किया और उसकी तैयारी में प्रकाश सिंह बादल पंजाब में और PDP जम्मू कश्मीर में है इन परिश्थितियों में राष्ट्रनीति कम राजनीती ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो जाती है लोगो के sentiment राजनितिक मुद्दों की जगह ले लेते है, बस यही राजनितिक अवसरवादिता और vote की मज़बूरी!



 # क्या उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को चुनोती दे सकता है ?

मामला बड़ा संजीदा है और सवाल उठते है क्या ऐसा भी हो सकता है तो उत्तर होगा नहीं, madras high court ने supreme court  के फैसले को चुनोती नही दि,बल्कि उसने अधनियम २२६ के तहत मिले अधिकार को तव्वजो देते हुए एक प्रस्न को जन्म दिया कि क्या एक अपराधी एक अपराध के लिए दो सज़ाओं का हक रखता है?और इसी कारण madras high court  ने  राजीव के हत्यारों कि सज़ा पर रोक लगा दी!

कहतें है स्त्री कि सुन्दरता उसके चरित्र को बयाँ नहीं करती उसी प्रकार भारत दुनियाँ का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है१ पर आज यह प्रणाली विवादों के घेरे में है! पर क्या इसे सुचारू रूप से चलाया जा सकता है, तो जवाब होगा हाँ....................

सुझाव जो दूर रख सकते है फाँसी कि सज़ा को राजनिति फाँस बनने से !

१) राष्ट्रपति अपनी नैतिक ज़िम्मेदारियां समझे !
२) अधनियम ७२ में संशोधन अवश्य हों !
३) राजनितिज्ञय राष्ट्रनिति को राजनिति से न जोड़े !



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