Tuesday 28 February 2012

क्या 'संस्कार' या 'संस्कृति' नियमों की दासी है ???

क्या 'संस्कार' या 'संस्कृति' नियमों की  दासी है ???

सवाल बड़ा ही पेचीदा है, किन्तु जवाब उससे भी ज़्यादा ...नार्वे में भारतीय मूल के दम्पति अनुरूप और सागरिका की उलझने  भी कुछ ऐसी ही है पेशे से वैज्ञानिक इस जोड़ी पर आरोप है कि वह अपने १ वर्षीय बेटी एश्वर्या और ३ वर्षीय बेटे अभिज्ञान का पालन-पोषण अच्छे से नहीं करते है यह कहकर नार्वे के चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज (सीडब्लूएस) ने पिछले वर्ष मई से ही उन दोनों बच्चो को उनके माँ-बाप से अलग कर रखा है, जिन दलीलों के तर्ज़ पर बच्चो को उनके पालकों से अलग किया गया वह सुनकर शायद आपको हैरानी भी हो मसलन वे अपने बच्चों को हाथ से खाना खिलाते हैं , और अपने साथ ही बिस्तर पर सुलाते हैं.. है न अचरज की बात और हो भी क्यूँ  ना भारत जैसे देश में तो यह एक समान्य प्रक्रिया का हिस्सा है, अर्थात यह प्यार उस संस्कार और संस्कृति की अद्दभुत "उपज" है जिसे यहाँ घर-घर में देखा जा सकता है परन्तु विडम्बना देखिये भारत में पनपने वाला यह प्यार नार्वे की अजीबो-गरीब नियमों को रास नहीं आता....

और इन सब के बीच जो सवाल अब भी मुँह बाए खड़ा है वह है नियमों की दुहाई का ?????

ऐसा पहली बार नहीं हुआ कि किसी देश,धर्म या समाज की रीतियों से दुसरे मुल्कों के बने नियमों को आपत्ति न हुई हो इससे पहले भी मुस्लिम औरतों के बुर्का धारण करने पर सुरक्षा की दुहाई देते हुए फ़्रांस  द्वारा लगाये     गए प्रतिबन्ध , ब्रिटेन में हिन्दुओ के खुले में दाह-संस्करण पर रोक यह कहकर लगा दिया कि यह पर्यावरण को दूषित करते है वहीँ पगड़ी-धारण किये सिख़ बालक को क्लास में पगड़ी पहनने से मना करना (ऐसी घटनाओं की एक लम्बीं फेहरिश्त है) सभी के सभी मामले अत्यंत सवेदनशील है क्यूंकि ऐसी घटनाएँ उन लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है जिससे लाखों-करोड़ों लोगो की मान्यताएं जुडी होती है!

मै यह नहीं कह रहा कि नार्वे की घटना का सच क्या है क्यूंकि इसका तो फ़ैसला अगले माह कोर्ट ही करेगा कि, क्या गलत और क्या सही?? किन्तु चाइल्ड वेलफेयर सर्विसेज (सीडब्लूएस) द्वारा दी गई दलील ने इस नए प्रश्न को जन्म दे दिया की क्या सदियों से चली आरही परंपराओं को मात्र इसलिए त्याग कर दिया जाये की वे किसी के बनाये नियमों से मेल नहीं खाती?? क्या नियम और मान्यताओं के बीच ऐसा समन्वय नहीं स्थापित किया जा सकता कि जहां मान्यताओं को नियमों की उपेक्षाओं से होकर न गुजरना पड़े...................

( मेरा यह लेख सिर्फ नार्वे के हुए वाक्ये को लेकर नहीं था, किन्तु हाँ उस घटना का सन्दर्भ मेरे लेख के पृष्ठभूमि के उठे प्रश्न से जरुर था जिस पर एक बहस की आवयश्कता है क्यूंकि भारत ही नहीं कहीं ना कहीं समुचा विश्व "मान्यता विरुद्ध नियम" की लड़ाई में फंसा पड़ा है और जहां पर समझ पाना दोषी कौन है बेहद ही मुश्किल है )


  सत्या "नादाँ"


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