शराब की गंगा घर -घर पहुंचाता गया,
व्यापार का आकार बढाता गया,
हुई मुद्रा कि वर्षा इतनी सारी,
कि कुबेर का प्रकोप था माया पर भारी,
मिलती रही जो ठेकेदारी,
इसके बल पर सबको नचाता गया
शराब की गंगा घर -घर पहुंचाता गया !
चुनावी साल ऐसा आया,
सियासत का दावं ऐसा आया,
कि सब का सब धरा का धरा रह गया,
"चड्ढा का चिराग",
आयकर को पता चल गया!
तब खजानों पर खज़ाना निकला,
चड्ढा कि सम्पंती का जनाज़ा निकला,
आय ज्यादा - कर कम,
जिसे देख आयकर दंग !
पर हुआ न मै हक्का बक्का,
भाई! सियासत कि यही कहानी है,
आज पोंटी चड्ढा तो,
कल किसी और कि बारी है !
न जाने ऐसे और चड्ढा,
कितनो के साथ बैठते होंगे,
जिनपर आयकर कि नजर न जाती है,
क्यूंकि आयकर भी किसी के हाथ की चाभी है!
सत्येन्द्र "सत्या"
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