"आज फ़िर तेरी याद आई नशा प्यार का जो था चाहकर भी तुझे अब तक भुला न पाया हूँ"

दो दिलों कि उम्मीदें उठने से,
पहले ही क्यूँ गिरा दी जाती है..
हर दफ़ा रिश्तों कि बेबसी में,
प्यार ही क्यूँ उलझ जाता है..
क्यूँ सितम न हो पर "सितम" हो जाता है..
क्यूँ प्यार को "वियोग" कि,
परिभाषा से ही होकर जाना पड़ता है..
क्यूँ ..क्यूँ ...क्यूँ ...क्यूँ ..आखिर..क्यूँ..
हमसफ़र न मै हुआ न तु हुई प्रिये
अश्रु कि माला से हम दोनों जुड़े प्रिये
तुझको भी दिशा मिली मुझको भी दिशा मिली
पर दोनों कि दशा ना बदली प्रिये....
अतीत कि याद में
ज़िन्दगी कि चाह में
वर्तमान भी डगमगा रहा
तू न मिलेगी मुझे
जान कर भी न जाने
यह दिल क्यूँ तुझे बुला रहा ..
क्यूँ तुझे बुला रहा....क्यूँ तुझे बुला रहा..
सत्येन्द्र "सत्या"
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