Monday 9 July 2012

"संकोच का सांप"


     "संकोच का सांप"


दुनियाँ मदमस्त हो जीती रही
मै संकोच में मरता रहा
कभी सोचा कि कह दूँ उनसे
कि मेरे सिने में ज्वार कैसा है
दिखा दूँ उन्हें कि मुझमे
शक्ति का सामर्थ्य कितना है
पर जब कभी भी कदम बढ़ाता
संकोच का सांप सर उठाये सामने आ जाता
संकोच का सांप सर उठाये सामने आ जाता....

सांस थम सी जाती
मन घबरा जाता
ऐसी विचित्र अवस्था में
निकला कदम डर के पीछे आ जाता  
निकला कदम डर के पीछे आ जाता...

तब मन में ख़्याल आता
कि अब दशा के लिए दिशा बदलूँगा
सफलता की मोतियों को अर्जित करने हेतु
फिर घर से निकलूंगा
साहस के बल से
स्वयं को फिर सक्षम करूँगा
एक नया रास्ता चुनूँगा
अभी सहम-सहम कर
कुछ फासलें तय किये ही थे
कि फिर संकोच का सांप सर उठाये सामने आ जाता
फिर संकोच का सांप सर उठाये सामने आ जाता......

आँखों को समझ ना आता
कि यह क्या माज़रा है
क्यूँ संकोच का सांप हर राह पर खड़ा है
तन जवान किन्तु रक्त इतना ठंडा क्यूँ हो चूका है
कि शरीर की आत्मा पर संकोच का भूत भारी है
मानवीय आत्मा क्या इतनी संकुचित हो गई
कि आज संकोच से हारी है.......

बार-बार दिमाग में
गूंजते इन प्रश्नों ने
मुझे आज इतना विवश कर दिया
कि मन से डर तन से शर्म उतर गई
और कल तक मुझे डराने वाला सांप
देख मुझे निडर इन रास्तों पर चलता
स्वयं डर कर अपना रास्ता बदल गया
स्वयं डर कर अपना रास्ता बदल गया.......



सत्येन्द्र 'सत्या'

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