Friday 13 July 2012

नारी का कुछ ना 'मोल' है!!!


"नारी का कुछ ना मोल है" 

मेरे आबरू से खेलते कुछ लोग
मेरी इज्ज़त लुटती सरे आम है
मै बस नाम की रह गई हूँ
वो...सीता... तुलसी... गंगा...
जो अब हो रही
मानवीय दुषात्मा का शिकार है
और मिली भी तो
कैसी स्वतंत्रता मुझे
कि ज़िन्दगी बन गई
पुरषों की गुलाम है
कभी पीटा-कभी जलाया
कभी अरमानों को
तालिबानी-फरमानों
से लटकाया......

समय बदला लोग बदले
प्राचीनता-नवीनता में समा गई
पर बदली नहीं तो वो मानसिकता
जो कल भी पुरुष-प्रधान थी
आज भी पुरुष प्रधान है
आज भी पुरुष प्रधान है....

सोचती हूँ तो आँख बह जाती है
मुल्क के इस मंज़र को देखकर
कि सभ्यता के ढोल में
इंसान की दरिंदगी का बोल है
हर तरफ मुन्नी-शिला-चमेली
सरे आम बदनाम है यहाँ
क्यूंकि आदमी की "अयाशी विलासिता"
के लिए नारी का कुछ न मोल है
नारी का कुछ न मोल है....

सत्येन्द्र "सत्या"


No comments:

Post a Comment