Friday 22 June 2012

सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी...

"वियोग की बेबसी"

सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी
न जाने किस के इंतज़ार में
दिल में तड़प चेहरे पर शिकन लिए
मन की बैचनियों से
किसी को ढुंढती
सावन के इस फुव्वार में
सिसक-सिसक कर रो रही थी खड़ी
न जाने किस के इंतज़ार में....

शायद कोई तो था
जिसे चाहती थी वो 
जिसे मानती थी वो
जिसके आने की चाह में
पलकें बिछाए
जिए जा रही थी
वियोग की आग में
पर कहकर भी ना
आया प्रियवर भला
उससे मिलने की आस में
उससे मिलने की आस में.....

बरसों से सपने सजोये
प्रियवर की याद में
खोई-खोई सी रहती थी
किसी से कुछ न कहती थी
पर उस शाम आई चिठ्ठी ने
उसे रुलाकर रख दिया
क्षण भर में सब कुछ
क्षीण-भिन्गुर सा कर दिया
मानो ख़ुशी कुछ ऐसी छिनी उससे
कि लब्ज़ खामोश हो गए
आँखे नम रह गई ......

सत्येंद्र "सत्या" 

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