Sunday 3 June 2012

"प्यार पर परम्परा की पाबंदी"

"परम्परा के तले बुझ गया प्यार"

तेरी यादों के साये से
मिलकर पता चला कि
ज़िन्दगी की हक़ीकत क्या है
यूँ ही अपनों में अजनबी
बना फिरता था मै
इसलिए सोच भी ना पाया कि
आदमी की हक़ीकत क्या है
हर पल हर घड़ी तुझसे मिलने को
तरसते मेरे नैनों के आसूं
अब तू ही बता कैसे कह दूं
इन्हें कि हमारे
रिश्ते की असलियत क्या है

पग पग चलता गया पथ पर
अपनों से लड़ता गया हर पल
फिर भी तू गैरों की तरह चली गयी
तुझे पाने की ख़ुशी नहीं थी उतनी
जितना आज खोने का ग़म सता रहा है

क्या यही सच्चाई है इस जहाँ की
जहाँ वसूल प्यारे हैं प्रेम प्यारा नहीं
जहाँ क्रूरता का शासन है
पर मानवता का आसन नहीं
जहाँ अंधविश्वास प्यारा है
पर विश्वास की डोर प्यारी नहीं
जहाँ अंहिसा का तो जाप है
पर लोग हिंसा के पुजारी हैं

और तुम छोड़ चली इन झूठे
आडम्बरों की ख़ातिर
जहाँ इंसानों की इंसानियत ही
मान्यताओं की मारी है
अरे जिन्होंने प्रेम को परम्परा
की दीवारों में जकड़ा है
अपनी बनावटी शान के अधीन
हमारे प्यार को कुचला है
तू उनसे डर गई
तू उनसे डर गई ...........

सत्येन्द्र "सत्या" 

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