Friday 22 June 2012

"मन के भाव जब अर्थ बन जाए"

"मुद्रा" तुम बिमार क्या हुई मुल्क का "विकास" बदहाल हो गया...


अब तो 'मेघा' के दामन से निकल आ 'सावन' वरना 
इस मासूम "शहर" को तपीश की नज़र लग जाएगी...

जिसे पाने की चाह में मै निकला था घर से
वही आज मेरी गुमनामी का सबब बनी...


तेरे मुल्क का मंज़र कितना बदल गया "गाँधी"
 की चूहे खाने में शेर हुए 
और इंसान अब भी "भूख" से बिलकता है...


"उर्दू" में असर तो है जावेद कैफ़ी ग़ालिब जो अपने अल्फाजों से...
दर्द भरी सुराही से भी मोहब्बत का सैलाब बहा दे...


मुझे 'रोशनी' की दरकार थी पर नादान 
वक़्त ने रिश्ता 'अँधेरे' से जोड़ दिया........


उम्मीदों की दुनियां में मैंने भी दस्तक़ दे दी 'साहिल' 
क्या पता तेरी 'लहरें' मुझे भी मंज़िल का किनारा दिखा दें...


मै हवाओं में उड़ाता प्यासा परिंदा हूँ...वो नादान
मुझे पानी पीता देख ज़मीं का बसिंदा समझ बैठे.....


तेरे आँखों में "आंसू" न होते अगर बेरहम जमाने के डर से
तो मै मजबूर न होता इस "अंगूर के रस" को ओठों से लगाने को...

सत्येंद्र "सत्या

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