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तेरी आँखों से दूर
बादल से घने अँधेरे में
मन की आशाओं से घिरा
बेबस बंधा बंदिशों में
मिलन की बेताबी को तरसूँ ...
तेरे स्नेह के संगम में
प्रियशी भीगा था मै कभी
पर वो मधुर सफ़र की घड़ी
ही थी ऐैसी कि आज भी
खुद को गिला समझूँ
खुद को गिला समझूँ......
तन तड़प से
मन मायूसी में खोया
तेरी प्रतिमा को
सिने से लगा रोज़ हूँ रोया
अपनी बातें तुझसे कहने को
बहुत है सोचा
फिर समय की सीमा ने
जुबां की खामोशियों को सींचा...
मै कहकर भी कह ना पाया
कि तुझसे प्यार है कितना
और तू सुनकर भी सुन ना पायी
कि तुझसे क्यूँ यह 'नादान'
बातें करता था इतना
बातें करता था इतना !!!
सत्या "नादान"
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