कुछ बदला भी है मेरे जाने के बाद
ज़ोर अब भी है चीख अब भी
शहर शहर दुराचारिता के गीत अब भी है
कहीं ऐसा तो नहीं
कि मैं बस वो इतिहास बन कर रह गई
जिसकी कहानी आंसू से शुरू होती
और आंसुओं पर ही ख़त्म हो जाती
जिसका ना ही कोई सबक है ना ही सूत्र
नगर नगर मोम सी जलती ज़रूर
पर रोशनी बन जगमगा नहीं पाती
मुझे तो हर बार दर्द होता
जब जब मेरा मेरे से सरोकार होता
कभी मुंबई के शक्ति मिल में
कभी उन गुमनाम गलियों में
हर बार ख़बरों की ख़बर "तहलका" ही होती
लेकिन असर फिर वही सियासी शोर
ना कानून का डर ना सभ्यता का शर्म
बस दोष दोष मेरा है
कभी मेरी आज़ादी का दोष..... कभी मेरे कपड़ों का
कभी मेरा श्रृंगार दोषी..... कभी मेरा व्यवहार दोषी
सदैव दोष दोष ही मेरा दर्पण रहता
इस पुरुष प्रधान देश में.......

तो क्या बदला ??? तो क्या बदला ???
तो क्या बदला ??? तो क्या बदला ???
सत्या "नादाँ"
भाव के सागर से निकली कृति।
ReplyDeletethanks Happy Jee !!!
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