Wednesday 4 June 2014

"हवस" में "हिंदुस्तान"



फिर एक तमाशा मेरी मौत पर लगा है
हवस के हाथ ताक़त
क़ानून जुर्म का नशा है
घर से निकलते ही
माँ कहती... बिटिया ज़रा संभल के जाना
और फिर दबे पावं
पीछे-पीछे... आ जाती सड़क तक
ना चुप रहती... ना ठहरती
बस बेचैनियों संग बहती
मेरे सफ़र को सोच
उसकी सिकन...
बेहया.. बेशर्म.. ये घूरती आँखें बताती
नज़र का नशा थमता नहीं
भूख़ जिस्म की ज़हन में समाती
पहर क्या... क़हर था वो दरिंदगी का
कंगन टूटे... आंसू फूटे...
मैं चीख़ती रही...
दहशत से सोए नगर में
पर कोई ना आया.. पर कोई ना आया..
आज घर सुना सहमा हुआ है
पिता बेबसी में भटके पड़े..
माँ... मातम में डूबी जा रही
मंज़र देख... मुन्ना रोता
कि दीदी बोलती नहीं.. भीड़ आँगन में ये कैसा पसरा पड़ा है
ख़ुशी ख़ौफ़ बन गई ज़र्रे ज़र्रे की
हया हवन में जली जा रही
और मुल्क़ मुद्दो में मरा हुआ है....
सिवा शोर मैं कुछ भी तो नहीं
कल भी दबी थी.. आज भी दबी हूँ
ना जाने ये सिलसिला कब तक चलेगा ???

सत्या "नादाँ"

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