"मय मेरी महबूबा"
मय से मोहब्बत की है मैने
जो हर रोज़
उस गली का दीदार करता हूँ
लोग कहते हैं
बेकार-बेकाम-बेगैरत जिसे
उसी से मै बेपनाह प्यार करता हूँ
ना पूछती है डगर
ना पूछती है मंज़िल का पता
भटकता हूँ जब भी
तनहाई के अंधेरों में
नफ़रत-जुर्म-ख़ुदग़र्ज़ी
माया के मेलों में
तब ले जाती है
खुशियों के आँगन में
जहाँ गम भी गुम हो जाता
जहाँ गम भी गुम हो जाता.....
सत्या "नादाँ"