Thursday, 5 March 2020

उसे गिरता देख.. आँखों में चुभन सी होती है !!!

उसे इस क़दर गिरता देख
आँखों में चुभन सी होती है
इंतज़ार ने जो उम्मीद रखी थी
वो अब...
साँसों को घुटन सी लगती है
इश्क़.. इबादतत.. इम्तिहान..
क्या?? क्या?? ना लिया तुमने
शहर में शोर.. शोर.. शोर कर
क्या?? क्या?? ना किया तुमने
रोज़ एक ख़बर से निकल
दूसरे... में समा जाती थी
कभी कशिश कभी किरण
पल.. पल.. ना जाने!
कितने रूप दिखा जाती थी
आज तुम्हे भी मालुम है
इस मोहब्बत की मज़बूरी का आलम
जो ना तो....
मर पाती है ना मार पाती है
सिर्फ चीख़ ही चीख़
और सन्नाटे में पसरती जाती है...
शायद इसे अब भी भरोसा है
कि... "मुद्रा"
तुम ग़ैर होकर भी ग़ैर नहीं

सत्या "नादाँ"

Saturday, 10 November 2018

घर में "चंडी" नगर में "चंडाल"

घर में "चंडी"  नगर में "चंडाल" 


क्या तुम जानती हो??? उस दोहरी मानसिकता... दोहरे चरित्र... दोहरी बातों को... जिसमे तुम्हे एक ओर देवी मानकर पूजने का ऐसा भयंकर ढोंग चलता है कि चैत्र नवरात्र एंव शारदीय नवरात्र के नौ दिन और नौ रात तुम रोज़ाना...  ब्रह्माणी रुद्राणी और कमलारानी कहलाती हो... वहीँ दूसरी तरफ़ बचे हुए ३४७ दिन शिला.. लैला.. चिकनी चमेली.. का वह शोर जो कान के पर्दे को कम समाज की सोच को ज़्यादा फाड़ता है...  वैसे भी हम अवसरवादी पुरुष युग-युगान्तर से अपनी ज़रूरतों के हिसाब से तुम्हारा नामकरण करते आएं हैं... जहाँ एक ही परिवार में संतान के रूप में तुम्हारा पहला जन्म तो "लक्ष्मी" हो जाता है किन्तु तीसरा-चौथा एक अभिशाप जिसे स्त्री के पिछले कर्मों से जोड़ दिया जाता है... कोख़ में क़त्ल कर मुल्क़ में लिंग अनुपात पर चिंता ज़ाहिर करनेवाला तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग फिर नारी सशक्तिकरण का तकिया कलाम लेकर आ जाता है... "बेटी बचाओं.. बेटी पढ़ाओ" समझ नहीं आता भाई... किसकी बेटी बचायें और किसकी बेटी पढ़ाएं ? स्वयं की या सामनेवाले की ????? अरुणा शानबाग..जेसिकालाल .. मधुमिता शुक्ला .. अंजना मिश्रा... प्रियदर्शिनी मट्टू.. कठुआ.. निर्भया.. शक्ति मिल.. जैसे बलात्कार एंव ह्त्या के कांड समूचे देश में ना जाने कितने हुए??? जिसमे परिवार ने अपने बच्चियों को सीने से लगा उन्हें पाल- पोसकर बचाया भी और पढ़ाया भी... लेकिन अंजाम जगज़ाहिर है !!! जिसे जैसी छूट मिली वह वैसा ही दबोचता गया... किसी ने ज़बान से... तो किसी ने जिस्म से सरेआम तुम्हारी आबरू को तार-तार कर अपनी हसरतों की भूख मिटाई... और हक़ीक़त भी यही है कि..... 'सरकार' और 'समाज' का दो मुंही बातों वाला आचरण जब तक समाप्त नहीं होगा... "तुम्हारा" हश्र ज्यों का त्यों ही रहने वाला है.. चाहे "विकास" कितना भी बड़ा क्यों ना हो जाए !!!!!


सत्या "नादाँ"

Friday, 18 May 2018

जनता बेचारी "जनार्दन" को तरसे....


येदुरप्पा को नंबर चाहिए
सिद्धरमैया को सरकार
"कुमार" ख़ुद को स्वामी समझे
"हाथ" पर रख कर हाथ
नाटक में कर्नाटक फंस गया
हो रही तरह तरह की बात
मोदी विकास - विकास ले दौड़ें
राहुल विवेक - विवेक के साथ
जनता बेचारी "जनार्दन" को तरसे
गाँव शहर बदहाल हालात
कहाँ तंत्र है? कहाँ लोक है?
कहाँ तंत्र है? कहाँ लोक है?
पक्ष - विपक्ष सत्ता का प्रलोभ है
फ़िर !!!
किसे फ़र्क़ पड़ने वाला
बार - बार गिरते
उन पूलों से
उन रेलों से 
उन उसूलों से......


सत्या "नादाँ" 

Monday, 19 February 2018

शिक़ायतें बहुत हैं "तुमसे"...

शिक़ायतें बहुत हैं "तुमसे"...

शिक़ायतें बहुत हैं तुमसे 
वक़्त को बेवक़्त करने की 
नर्म... नर्म...
ज़रूरतों को ज़िंदा रख 
जिस्म को जर्ज़र करने की 
कभी आईना कभी आंचल
कभी जाम.. कभी ज़ीनत..
आहिस्ता.. आहिस्ता...
दिल में ख़ुद को बसर करने की 
शिक़ायतें बहुत हैं तुमसे 
शिक़ायतें बहुत हैं तुमसे 

नशा नज़र को नूर का देकर 
फ़िराक़ में चाँद के चूर कर जाना 
शहर....... के अंदर शहर 
बे अदब... बे क़रार बादलों सा 
रूह.. रूह.. बदन का
कागज़-क़लम-किताब तर जाना 
ज़बान.. ज़बान.. ज़ख्म़ लिए
एक क़फ़स में क़ैद ज़िन्दगी

ज़बान.. ज़बान.. ज़ख्म़ लिए
एक क़फ़स में क़ैद ज़िन्दगी
ख़्वाहिशों से टकरा-टकरा कहती 
शिक़ायतें बहुत हैं तुमसे 
शिक़ायतें बहुत हैं तुमसे.......


सत्या "नादाँ"

Tuesday, 6 February 2018

"विकास" विख़्यात विश्व में... और "आनंद" घर में ही अज्ञात है !

चाय पकौड़े की खातीरदारी
अब लोकतंत्र में ख़ास हुई
भाईचारा भौकाल हो गया
मज़हबी हर मकान हुई
ज़मीन साफ़
ज़बान गन्दी
झाड़ू बस एक
स्वच्छ भारत की पहचान हुई 
इस सियासत ने "माँ" को भी नहीं बख्शा
लहू लतपथ रोज़ बेटों का
सरहद ख़ूनी घमासान हुई
2G... 2G... 2G...
क्या ज़ोर... ज़ोर का नारा था
अब जी.. जी.. जी.. गा रहे
यह कैसी "मन से मन" की बात थी
बजट ने बेबस कर दी
घर में दो जून की रोटी
विकास.. विख़्यात विश्व में
और आनंद घर में ही अज्ञात है...

सत्या "नादाँ"

Monday, 13 November 2017

"दिल" बच्चा ही अच्छा था....

"दिल" बच्चा ही अच्छा था....

ना कपट था
ना कशिश थी
हाँ..... किताबें
थीं
चित्रों से सजी हुई
ज़हन में सनी हुई
उलझनों से बेख़बर
उस उम्र के आग़ोश में

आज "दिल"
एक शहर है
धुओं की धुंध में पड़ा
हैरान - परेशान
नफ़रतों को समेटे
ज़ज़्बातों से जंग करता
इश्क़ की तलाश को

जब बचपन था
तो ख़ुशी थी....
पर मुझे पता नहीं
आज जवानी जानती है
उसके मायने
पर ख़ुशी है कि, जल्द आती नहीं !!!!

सत्या "नादाँ"

Tuesday, 19 September 2017

उफ़ !!!! ये बरसात...

खड़ी गाड़ी
पड़ी गाड़ी
गाड़ी पर चढ़ी गाड़ी
सब हैरान से चेहरे
तनाव ग़हरे के ग़हरे
सच.... सोच को रुला रही है
क़शमक़श ज़िन्दगी
इंतज़ार इंतज़ार में
सर्द सहमी सिमटी जा रही है
वो मुझे देखे
मै उसे देखूं
नज़र नज़र से
कुछ बता...
कुछ छिपा रही है 
घूर घूर घड़ी देखते सारे
मोबाइल जेब की...
रुक रुक बजती जा रही है
सब्र अब बेसब्र होने लगा
भीगी ज़मीन भीगा जिस्म
आज
भीगी भीगी सारी उम्मीदें हैं
शहर समझ ही नहीं पा रहा
भीड़ भय में...
तितिर.... बितिर
पसरती जा रही है
उफ़ !!!! ये बरसात...
उफ़ !!!! ये बरसात...

सत्या "नादाँ"